💐प्रेम की राह पर-35💐
विस्मय है क्या विशेष कोटि के मोती तुम्हारे मुस्कुराते समय तो नहीं गिरते होंगे या फिर तुम्हारे प्रतिक्षण सराहनीय आभा का प्रतिबिम्ब तुम्हारे इस नश्वर शरीर से जगत में विकरित हो जाता है।यह तो निश्चित है कि तुम्हारे अन्तः से पीड़ा का वमन तो होता ही है।वह खेद भी जहाँ तुम अपनी सादृश्यता की माप अपने कोरे ज्ञान के आधार पर जड़ चेतन में दृश्य करना चाहते हो।तुम इतने भी गंभीर न हो कि तुम्हारे कानों में हर समय अनाहद श्रवित होता है।तुम्हारी कोमलता इतनी भी नहीं है ग्रीवा से उतरता जल तुम्हारी कण्ठ से स्पष्ट दिखाई दे।तुम्हारी अंगुलियाँ किसी विशिष्ट लेख का स्रोत नहीं।और न ही अपने पदचाप से तुम किसी अज्ञात सृष्टि को नवनिर्मित करते हो।तुम्हारी आँखों की दृष्टि किसी पर पड़ जाए तो माया का भंजन कर देती है क्या।फिर ज्ञान की उस अपनी खोखली मेखला पर चन्द किताबी टुकड़ो को अपनी मष्तिष्क में अपने ही निदर्शन को हर जगह क्यों देखना चाहते हो।क्या तुम ईश्वर से भी बड़े हो गए हो।क्या तुम उस ईश्वर की उदारता को अपने जीवन में कोई स्थान नहीं दोगे।मनुष्य कभी ईश्वर नहीं बन सकता है।हाँ,ईश्वर को अपने लीलाविलास के लिए इस धराधाम पर मनुष्य रूप में आना पड़ता है और जो मनुष्य स्वकल्पित ईश्वर बनता है उसका परिणाम तुम भी जानते हो।तो तुम वह ईश्वर भी नहीं हो।तुम अपने मूर्ख कर्मों को तिलांजलि देना भी सीख लो।तुम अपनी तूलिका में स्वअर्जित ज़्यादा चित्र न उकेरो यह संसार उन सब चित्रों को फीका कर देता है। जिनमें इस भूमि के दो पैरों के मननशील जीव को उसकी कसौटी पर ने कसा नहीं जाता।तुम्हारी मूर्खता को परिभाषित करना इतना आसान नहीं है कि जितना आसान पोहा बनाना है।तुम्हारे ज्ञान से हर समय सड़े अण्डे की गन्ध आती रहती है।तुम्हारा ज्ञान अब निश्चित ही प्रक्षिप्त पीड़ा से पीड़ित है तुम ही समझोगे।तुम्हारी निर्लज्जता,तुम्हारी उदासीनता,तुम्हारा कोरा ज्ञान करुणा वरुणालय परमात्मा के अद्भुत प्रेम से वंचित हो चुका है।इसके लिए तुम्हारी मूर्खता ही जिम्मेदार है।
©अभिषेक: पाराशरः