💐प्रेम की राह पर-34💐
शब्दसंधान के पक्ष में तुम्हारे तर्कों को नामित कर देना और सरलता से कह देना कि तुम बिलम्ब से हो,मेरे जीवन के रहे उस अन्धकारपूर्ण समय को,हे प्रिय मित्र? तुमने अपने ढंग से दुत्कार दिया और भंजित कर दिया उन निर्मल भाव भरी भावनाओं के प्राकट्य द्वार को।उस द्वार से क्या अब उन भावनाओं का उपहार किसी के प्रति प्रकट होगा।क्या उनसे किसी के प्रति दिलाशा का दान भेंट किया जा सकेगा।तुमने ऐसा किया क्यों यह सब समय के गर्भ में दफ़न है।अपनी प्रकृति के अनुसार यह प्रकट निश्चित ही होगा।तुम्हें देखकर मैंने तुमसे कोई मिथ्यावचन का शिष्टाचार न किया था।या तुमसे कोई दुर्भावना पूर्ण सामग्री का प्रेषण ही किया।फिर हे मित्र?तुमने मेरे कथनों का कोई मूल्य नहीं समझा और न समझा उस सीमित अवधि में उठे प्यारे व्यंग्य के महत्व को। अपने पश्चात शोषित विचारों के हुए अपमान के कारण पूर्व विचार भी ठिगने महसूस करने लगे हैं।पर क्यों जानते हो।इसमें तुम्हारी मूर्खता के सीमित और वृहद दोनों पैमाने जिम्मेदार हैं।तुम्हारे आँखों पर लगे ऐनक से क्या तुमने दिव्यचक्षु ले लिए हैं।या फिर क्या तुम इस नश्वर शरीर के प्रति ज़्यादा आशाएँ बांधे हुए हो।तुम निश्चित ही गलने वाले इस शरीर के अहंकार में संलिप्त हो।तुम संलिप्त हो उन जनों में जो कभी निश्छल प्रेम को समझ ही न सके।ज्ञानी तो सभी हैं पर अज्ञान की हद से पार तो निकलें।वे मानुष अज्ञान की हद से ही बाहर नहीं निकल पाते हैं।तुम उसी अज्ञान की हद को पार करने में लगे रहना।तुम्हारा ज्ञान तुम्हारे गुनने तक सीमित ही रहेगा।तुम अज्ञात के प्रति मेरी आशाएँ धूमिल न थीं और न ही मेरा चरित्र ही धूमिल था।तुम किस स्थान पर मेरे प्रत्येक वक्तव्य पर संदेह करते रहे।संदेह किया तो उन तथ्यों का प्रेषण मेरे सम्मुख कब करोगे।किन परिस्थितियों की प्रतीक्षा में हो मित्र।सन्देह का शिखर शुद्ध भावनाओं के प्राँगण से ही नज़र आता है और संदेह के शिखर से ही नज़र आता है शुद्ध भावनाओं का प्राँगण।दोनों के शिखर और प्राँगण को जीवन के सत्यानुभव के आधार पर समेकित कर समान आधार पर लाया जाता है और दिया जाता है उन्हें प्रेम का स्वरूप। इतना आसान नहीं है इसे स्वीकार कर लेना।परन्तु इसे स्वानुभव के आधार पर अकिंचित भी नहीं कहा जा सकता है।क्यों कि इसका भी स्वप्रमेय है जिसे स्वयं और अन्य की सीख का योग कर मनन करना पड़ेगा।
यह कोई आतंक नहीं था जिसे मेरे द्वारा तुम्हारे ऊपर आरोपित किया गया था।न ही यह उन सिद्धांतों से पोषित था जिनसे कभी तुम्हारे हित में प्रेमवृक्ष पर विनोद के पुष्प,सत्य के फल और सुखद एहसास की कोपलें दृश्य होंगीं।तुम्हारा विश्वास किस सीमा से परिभाषित किया जाए।तुम्हें इससे ज़्यादा,हे मित्र,अपना परिचय किस तरह देता।तुम्हारे पास कोई भेषज हो जिससे पता कर सको कि कहीं यह मूर्खप्रीति में तो नहीं उलझा है।तो उसका भी समीर के माध्यम से सेवन करा दो।या फिर दे दो मारण विष जिससे यह सिद्ध हो सके कि यह मनुष्य ही था।या फिर भेद दो मेरे इस हृदय को इस्पात की तलवार से।फिर अन्वेषण कर लेना कि उत्स्य हो रहा रक्त किसी प्रेमासक्त मनुष्य का ही रक्त है और क्या क्या उपाय तुम्हें प्रेषित करूँ।तुम्हारे द्वारा झकझोरी गई इस प्रेमस्थली को वारुणी भी शान्ति न देगी।न कोई उपवास ही इसके लिए शान्ति का दान करेगा।कोई पीर भी इसकी पीर को उपसंहारित न कर सकेगा।इसकी प्रेमाग्नि को तुहिन भी शैत्य प्रदान न कर सकेगी।फिर तुम्हारे अज्ञान ने इसे कैसे अपने तराजू पर तौल दिया।कैसे इसकी मिति को अपनी सीमित विधा से माप लिया।तुम्हारे नेत्रों ने ऐसा क्या देख लिया जिसे अपने अन्दर स्थिर कर लिया।यह सब तुम्हारी मूर्खता ही सिद्ध करते हैं।
©अभिषेक: पाराशरः