💐प्रेम की राह पर-31💐
15-1मनोरथ की पूर्णता उस एक एक क्षण के वशीभूत है जिसमें मानव का स्वेद उसे सदैव आगे बढ़ने के लिए ही प्रेरित करता है।वह स्वेद सामान्य नहीं होता है उसके एक एक बिन्दु में सफलताओं की अगणित गाथाएँ सुनहरे अक्षरों में लिखी होतीं हैं।फिर प्रेम अबलम्बी मानव का, प्रेम विषयक श्रम, प्रेम की उत्तम भावनाओं से सकेन्द्रित होते हुए प्रेरक मन की शिला पर क्या स्वयं ही प्रेरणाशील होता है।फिर उस स्नेह की उस प्रेरक मन को भिगोने की सामर्थ्य और लगन का कोई अभिप्राय ही नहीं होगा।क्या विशुद्धस्नेह के बिना प्रेम को आधार दिया जा सकता है।फिर तुम्हारा यश गान करना अपशब्दों के साथ मेरे प्रति,उस स्नेह को लाचार बना देने जैसा था।हे मित्र!तुमने उन अपशब्दों की पृष्ठभूमि किन सज्जनों के कहने पर सुनिर्मित की थी।क्या तुम्हें उसके परिणाम का भान नहीं था।हाँ, मैंने तो उससे तुम्हारे स्वरूप की स्थिति तय कर ली कि यहाँ पूर्वप्रणय का रत्ती भर भी उच्छिष्ट नहीं है,हाँ यह जरूर है कि किसी मेरे सदृश नर पर,मादा के मादक सौन्दर्य जैसा लंगर डाला हो।यह भी निश्चित करता है कि तुम्हारे द्वारा तू से किसी के माध्यम से मेरे प्रति संवाद करना उसने बड़ा ही रंज दिया मुझे।बर्खुरदार।लहौलविला क़ुव्वत।इस आश्चर्य ने मेरे पेट और नेत्रों को सजल कर दिया।एक बार तो ऐसा प्रतीत हुआ कहीं मधुमेह का विकार न लग जाए।हे यह वास्तव में ही स्त्रीलिंग मामला है।पर हे मित्र!उस निष्कपटता को तुमने अंत में ‘तुम लेट हो’ कहकर असीम समय के लिए टाल दिया।वह कन्दुक अब मेरे पाले में थी ही नहीं।मैं करता भी क्या।इसे मूर्खता और विद्वता की किस श्रेणी में सारणीबद्ध किया जाए।नगण्य से घटकर भी क्या घटकर हो।तुमसे इतनी माइनस निराशा की आशा न थी।हे मित्र!क्या तुम निरंकुश थे, तुमने मुझसे सीधे बात करने की कहा था।यह सब कैसे होता।तुम्हारे लिखे हुए शब्द तो गुँजन करते हैं यदि कथित होते तो वह महागुंजित होते।शायद ही कोई उस गुँजन को दैवीयपृष्ठ के अलावा परिवर्तित कर सके।आरोहण न कर सकूँगा इस जीवन के रथ पर हे मित्र!।यदि आरोहण कर भी लिया तो वह शक्ति उसे कैसे चालित करेगी जो तुम्हें खोजने में और तुमसे निरी आशाओं की प्रतिचाह में व्यर्थ नष्ट हो गई।इस विक्षेप से,इस गर्त से,इस दलदल से किस आधार पर बाहर निकलूँ।हे मित्र!यह
लेखन मुझे शांति की अगाध राशि प्रदान करता है।यह राशि अब में स्वयं के लिए बीमित करूँगा।इसके विक्रय का कोई प्रयोजन किसी के साथ नहीं है मेरा अब।तुमसे कोई आशा भी नहीं है।इस विषय पर कोई मुझे पारिश्रमिक तो देगा नहीं और नहीं देगा वह वाहवाही।जिसे किसी व्यक्ति का अद्वितीय कौशल उसे दिलाता है।मुझे सन्देह नहीं है तुम्हारे उस अहंकार पर जो तुम्हें इस मेरे सुष्ठु प्रेम की कथा को भविष्य में तुम्हारे ही द्वारा कहेगा और तुम्हें धिक्कारेगा कि यह सब अज्ञात के द्वारा था जरूर परं विनोद न था और न ही था परिहास।सादा हिन्दी में कह दूँ वह सज्जन पुरुष तुम पर अपनी प्रेम की दौलत लुटा रहा था और तुम उस झिंगुरी की तरह झिररररझिररररर करते रहे।मैं अहंकार भी तुमसे अलग होता हूँ।क्यों जानती हो तुम मूर्ख हो।वज्रमूर्ख।और वह कहेगा मैं किस पर जारी रखूँ अपनी गिलोल की चोट।
©अभिषेक: पाराशरः