💐प्रेम की राह पर-29💐
17-अश्वत्थ वृक्ष के निकट पड़ी हुई खण्डितप्रतिमाएँ सहसा खण्डन के कारण त्यक्त कर दी गईं।क्या वे मूर्तियाँ उस सहज प्रेम की वाहक नहीं थी।उनसे उन साधक का प्रेम,लगाव,निष्ठा जाने क्या-क्या जुड़ा रहा उसका।फिर उन्हें उस विरही विरक्तसेवी मानव ने कैसे त्यागा होगा।कितना उदासीन हो गया होगा वह नर जब उसने उस मूर्ति के खण्डन को स्पर्श किया होगा।इससे पूर्व वह मानव अपने उस सजीवमूर्ति से सुख-दुःख के कथनों को कहकर उक्त से अधिक अभिभूत होता होगा। हे मित्र तुम्हें मैंने सजीव ही माना उन अपने सभी कथनों की पूर्णता के लिए।फिर मेरा त्याग क्यों किया तुमने।मेरा उच्चारण शिथिल है।अश्रु सूखे हुए हैं।अपनी निष्पाप इस वार्ता को सहउद्देश्य किसी से कह भी नहीं सकता हूँ।निरन्तर प्रयासशील हूँ कहीं तुम्हारा प्रतिबिम्ब ही नज़र आ जाए और वह प्रकट हो जाए मेरे समीप।मैं कलंकित तो नहीं था।मैंने यह भी कहा था कि तुमसे कहे संवाद में पिचानवे प्रतिशत सत्य ही था और उस विषयक स्थिति में कथन कर सकता हूँ कि तुमने भी उसे प्रायोगिक रूप से सर्वत्र देख लिया होगा।क्या तुम्हें कोई व्यर्थ शब्द सुनने को मिले।नहीं न।परन्तु हाँ, हे मित्र!तुमने मेरे मौन को अवश्य सुना होगा।मेरी शान्तिभरी मुस्कान को सुनकर उसका चिन्तन तो किया होगा।मैंने जिन दुर्जनों की व्याख्या की उनका भी दृष्टिकोण ज्ञातव्य मानकर जाना होगा।महामारी काल में अपनी किसी से कैसी भी कहानी भी न कह सका।परं तुमसे अपनी सभी वह तरंगें जो मेरे हृदय में उठी कह डाली।हे साथी!उनका तुमने उपहास ही उड़ाया।हे ईश्वर!कितने भ्रामक अपशब्दों का मार्मिक प्रहार किया मेरे अकेले हृदय पर।हे मधुर!अपनों से यह आशा न थी मुझे।हाँ,मैं भी तो तुम्हें परख सकता था।मैंने तुम्हारे चलभाष पर सीधे सन्देशों का प्रेषण किया था।वहाँ वे शब्द व्यतिरेक न थे।हे सरल’!तुमसे वे तुम्हारी वय को देखकर ही कहे थे।तुमने मेरे मन के जिज्ञासा के भावों को ऐसे कुचल दिया जैसे नेवला सर्प के मुँह को अपनी मुख की चोट से कुचल देता है।क्या वे शब्द सीधे शब्दों में अय्याशी से भरे थे?क्या उनमें शराब की दुर्गन्ध आ रही थी?क्या उनमें व्यभिचार टपक रहा था?फिर ऐसा क्या तारतम्य था जिसे हे प्यारे!तुमने कनॉटप्लेस वाला इश्क़ समझ कर दुत्कार दिया।अगर ऐसा ही करना था तो इन्द्रप्रस्थ में एक वर्ष तक रहा वहाँ लगी हाटों से छाँट लेता किसी नमूने को।क्या केवल द्विजत्व भक्ष्याभक्ष्य खाने से सिद्ध होगा,नहीं न।अगर तुम्हें ऐसे कृत्यों के लिए प्रेरित करें तो क्या तुम उनका अनुशरण करोगे।नहीं न।मैं कैसे स्वीकार कर सकता था।उन धूर्तों के मनमाने आचरण।उनके पाखण्ड की चर्चा भी इस पावन प्रसंग की गति को बिगाड़ देगी।वह स्वप्न जैसा था जिसे भूल जाना उचित है।परं तुमने हे साथी! जो व्यवहार किया वह कैसे भूल जाऊँ।वह तो शब्दों के रूप में भ्रमर गुँजन सा है और मधुमक्खी के डंक सा।जब चाहे तब वह कहीं न कहीं सूजन दे देता है।गंगाजल का तेज़ाब जैसा है।हे प्रिय तुम बहुत दुराध्य हो।सभी प्रसंग सीधे मेरे निजों से कह डाले।यह पूर्णतया गलत है।यह सब मेरे प्रति गोपनीयता को भंग करना है।तुम्हें इसमें क्या आनन्द मिला यह भी उत्तर भी तुम्हें देना होगा।मूर्ख कहीं के।यादृच्छ तुम्हारा सामना किया।हाँ किया तो किया।फिर असत्य सम्भाषण करूँ।कि तुमसे इंद्रप्रस्थ में मिला।नहीं। हाँ तुम्हारे तात के बारे में मैंने सब पता कर लिया था।वह शस्य पालक भोलेभाले कृषक हैं।तो वहाँ बैठे अपने एक सज्जन से इसकी जानकारी की। पर इन सब व्यवहारों का यहाँ कहना कोई उचितं स्थान नहीं रखता है।बेलन और कलम की चोट में अंतर हैं।हे मोहक!बेलन का ताण्डव शरीर का ऊपरी भाग सुजाता है और लेखनी अंतःकरण को चोट पहुँचाती है। तुमने लगातार अपने द्वारा मार्च के महीने में किए गए प्रहार बेलन और कलम जैसे थे।हर तरफ सूजा हुआ है।यह सब सूजा हुआ है तुम्हारी मूर्खता से।पता नहीं एकल शब्द भी फिर दोबारा सम्मान का सुनने नहीं मिला है।हे मित्र!किस कन्दरा में प्रवेश कर गए हो।
©अभिषेक: पाराशरः