💐प्रेम की राह पर-26💐
20-कल शहतूत वृक्ष के समीप उतिष्ठ होने पर उसके पके फल सन्देश दे रहे थे कि हमारा पकना भी इतना आसान नहीं है,हमने जाने क्या-क्या नहीं सहा है।अपनी यह संक्षिप्त यात्रा हमे बड़ा सन्तोष देती है।फलित होने में।यह था उनका विश्वास उष्ण और शैत्य को सहकर भी प्रमुदित होना।परं हे मित्र!मैंने तो तुम्हें कैसे भी प्रकोप से पीड़ित नहीं किया।फिर तुम्हारा इस तरह किस बात को लेकर रुष्ट हुआ गया।किसी अन्य की निन्दा-स्तुति करना बड़ा आसान है, कभी-कभी अपने दोष भी देख लेने चाहिए।कल्याण की भावना तो स्वतः प्रकट होती है।कर्म की गति इतनी गहन है कि किस कर्म का क्या परिणाम हो कुछ नहीं पता।किसी भी गुण का गुरूतर होना श्रेष्ठ हैं।परन्तु अति तो उसकी भी बुरी है।निश्चित ही वह अहंकार को जन्म देगा और अहंकार ठहरा सबसे बड़ा पतन का कारण।मृत्य लोक में बार-बार पटका जाएगा।कहीं तुममे तो किसी गुण की अधिकता तो नहीं समझ बैठो हो।फिर तो जन्म ले चुका है अहंकार जो तुम्हे डूबो देगा पतन के गहरे जल में वहाँ साँस देती रहेगी झूठी भावना।चलो ठीक है तुम्हें बताया अपने तरफ से तुम्हें अपना मानने के कारण।तुम अपना शत्रु ही समझते रहना मुझे।तुम्हें मेरी सरलता रास नहीं आई।मेरी निष्कपटता, आख़िर क्या दोष था इनमें।क्या?हे मित्र तुमने मेरे अन्तः और बाह्य रूप के नख-शिख दर्शन कर लिए थे।तुमने अपने समर्थन में,अपने पक्ष की कैसी भी बात साझा न कर सके।फिर निश्चित ही मैं कह सकता हूँ कि किसान बिलों को पास न कराने पर,सरकार की तपस्या में कमी की तरह,मेरे भी सुष्टु प्रेम तप में कमी रह गई थी।बड़ी आशा थी कि तुमसे तुम्हारी पुस्तक मंगाएंगे।पर तुमने सभी रास्ते ऐसे बन्द कर दिए जैसे मैं कोई जंगली हिंसक जानवर हूँ और तुम्हें कहीं खा न जाऊँ।अभी भी कोई छोटी जगह बाकी हो तो अपनी पुस्तक तो भेज ही देना।उसे ही तकिया समझ लेंगे।अब तो जीवन काटना है। दो होकर भी अकेला ही रहूँगा।वैसे वह पुस्तक संजाल पर उपलब्ध है फिर भी यदि तुम्हारे हाथों से मिल सके तो बेहतर हो।न कहने की दशा में तुम मूर्ख ही कहलाओगे।क्यों समझ लो।स्वतः ही।
©अभिषेक: पाराशरः