💐प्रेम की राह पर-23💐
23-हिज़्र की शक़्ल कोई मुझसे पूछे तो उसे मैं बता सकता हूँ।मैं बता सकता हूँ आनन्दरज से बन रही उस प्रतिमा की प्रारंभिक अवस्था को जिसे तुमने तोड़ दिया।तोड़ दिया उस झोपड़ी को जो स्नेह के महीन तिनकों से बनी हुई थी।जो छाई हुई थी हमारे और तुम्हारे प्रेम के ऊपर।तोड़ दिए उस झोपड़ी के साहस,उत्साह, बल और जीवनप्रयोग के काष्ठस्तम्भ।स्तम्भ टूट जाने पर कहाँ रहेगी उस संज्ञाशील झोपड़ी की छाया।तुम्हारे विमर्श के शब्द भी तो सुनाई दे सकते थे।पर नहीं।अपनी मन्दबुद्धि से इसे क्षणिक शांति के लिये कैसे उपयोगी बना सकती थीं?यह भी तो हुनर हो।तुमने मेरी हर उस उपादेयता का क़त्ल कर दिया जिसे एकमात्र तुम्हारे लिए बड़ी संजीदगी से रखा था।अवगुण्ठित प्रेम के लिए समदर्शी हृदय की आवश्यकता होती है।परन्तु मेरे प्रेम को तुमने परित्यक्त करने के अलावा कोई अन्य उपाय न खोजा।कितने बहादुर हो तुम।पराक्रम तुम्हारा टपक रहा है।उसका निनाद भी तो जगत सुन रहा है।वह हो रहा है द्रवित और बढ़ रहा है त्वरित वेग से कुल्या बनकर।परं इस कुल्या में जो कभी भी तुम्हारे प्रेमानुभव को साक्षी मानकर हस्तधावन करेगा अन्त में तुम्हें ही धिक्कारेगा और कथन करेगा कि इस प्रेम में पराक्रम की कोरी अँगड़ाई है।जिसके द्रव में हाथ धोने पर क्लेश का कुष्टरोग लग गया।निश्चित ही यह किसी बुरी स्वार्थी स्त्री के प्रेम से आवृत है।सुन्दरता में कोरा गुलाबीपन हो वह नहीं जँचता है।कोई वस्तु,प्राणी,जीव आदि कितने सुन्दर हो सकते हैं।ज़रा सा भी कोई अवगुण होगा न।तो वह सुन्दरता भी फ़ीकी नजर आएगी।तुम ख़ूब ज्ञानी हो।चलो।यदि वह ज्ञान तत्क्षण परिपक्व निर्णय न ले सके तो और यदि ले सके तो अंत में परिणाम सुखद न हो तो,फिर तो तुम्हारा ज्ञान धूल चाटेगा।तुम्हारा ज्ञान एक दम घटिया है और तुम्हारा अदूरदर्शी प्रेम भी।अब इसके लिए मैं शब्द रहित हूँ।क्या मैं अपना गला काट दूँ तुम्हारे इस नश्वर शरीर से प्रेम प्रदर्शित करने के लिए और बन जाऊँ अमर प्रेमी और गाता रहूँ क़तील शिफ़ाई की गज़ल ” ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा।” तो मैं इतना आसक्त भी नहीं हूँ।यह कैसी अमरता होगी निकृष्ट।जिस पर जनमानस व्यंग्य ही कसेंगे और कहेंगे ये दोनों महानुभाव टपोरी आशिकों की पंक्ति में शिखर को चूम रहे हैं।कोई भी भला न बताएगा।मनुष्य देह पाकर किसी के शरीर से इतना प्रेम मैं न कर सकूँगा।जैसे माँसाहार में निश्चित ही हिंसक भावना छिपी है और वह त्यागने ही योग्य है।तो इतनी आसक्ति भी हिंसक ही है।चलो ज़्यादा गम्भीर न होना हे मित्र!तुम एक बार अपनी पुस्तक तो भेज ही देना मेरे लिए।तुम्हारे सभी पाप धुल जाएँगे।ईश्वर से कहेंगे तुम्हारे लिए।किताब तो भेज देना।मैं अपना एड्रेस साहित्यपीडिया के अपने पेज पर कुछ समय बाद लिख दूँगा आज या कल में।गाली और जूते न पड़वाना।ज़्यादा प्रचार-प्रसार न करना।मैं जानता हूँ तुम्हारा परिवार गाँव में बहुत भला है।ऐसा कोई काम भी नहीं कर सकता हूँ।जिससे इज्ज़त की नैया डूब जाए।इससे मेरा द्विजत्व प्रभावित होगा।समझे रंगीले।मूर्ख।
©अभिषेक: पाराशर: