🍀🌺प्रेम की राह पर-44🍀🌺
सहायिनी बनकर मृत्यु निरन्तर पग पग पर अपने स्वरूप को किसी न किसी माध्यम से दिखाती रहती है।विकच मनुष्य भी अपने चेहरे को देख कर खुश हो जाता है।वह उनके लिए उस दर्पण को दोषी नहीं करार देता है कि जो उसके शरीर को प्रतिबिम्बित करता है।उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है।गुलामों की खरीद फ़रोख़्त में उनकी बुद्धिमता को बारीकी से उनके कृत्यों पर निग़ाह रखकर ही चयनित किया जाता था।बुद्धिमत्ता और साहस के द्वैतीय मार्ग पर चलने वाला जब तक विश्वसनीय नहीं हो जाए तब तक उसकी परख जारी रहती थी।इस जगत में परामर्श देना कितना सरल है।परन्तु उसके साथ कितने जनों का सहयोग मिला।नजरें नीची हो गईं।कोई वस्तु सुखद तभी लगती है जब वह अनावश्यक क्लेश न दे।निरन्तर क्लेश देने वाली वस्तुओं को अवपीडक़ ही कहा जायेगा।ख़ैर दूषित विचारों के घर को साधुता के कड़े प्रयासों से रंग रोगन किया जाता है।इस हेतु श्रेष्ठ संगति को प्रमुख स्थान दिया जा सकता है।अपने श्रेष्ठ विचारों को उपबृंहित करना श्रेष्ठ संगति पर ही निर्भर करता है।अन्यथा अपशब्दों का शब्दकोश बिना अतिथि की तरह मस्तिष्क में अपना स्थान आरक्षित कर लेता है और समय समय पर वह अपनी रंगीनियाँ सभी जनों को बाँटता है।फिर चाहे उन रंगीनियों को कोई कैसे प्राप्त करता है।वहीं जाने।तो हे टुच्ची!तुमसे तो यह बे-हया संवाद मैंने प्रस्तुत नहीं किया था।यदि कोई रुग्ण व्यक्ति तुमसे भेषज की माँग करता है तो क्या तुम उसे कर्कश शब्दों के भेषज उसे ग्लानिरूपी जल के साथ भेंट करोगे।तो वह सज्जन क्या कहीं उस अवस्था से बहिः आ सकेगा जिसे उसने तुम्हारे प्रत्याशित होकर कहा।तो हे कद्दू!तुम अपने क्षेत्र की दद्दू बनकर अपने कर्मों की गंगा में अपने हस्तधावन करते रहो।कृष्ण तुम कौन से कम हो।तुम्हारे लिए निष्ठुर होने के अलावा कोई शब्द कहाँ से लाऊँ।इस कष्टाधिक्य को तुम अपनी लीला से ही संवरित करते हो।तुम भिन्न भिन्न अपने अनुभवों को अपनी निष्ठुरता के साथ प्रयोग में लाते हो।कोई कितना भी तुम से लगाव प्रदर्शित करें तुम अलगाव ही देना।ऐसी परिस्थितियों का महल बना दिया है कि मुझे उस महल में रहना पड़ेगा और तुम अपनी उपहास से भरी स्मित मुस्कान से मेरे हृदय को भेदते रहना और ऐसे ही तुमने दे दिए ऐसे ही मायावी लोग।जिनसे अपना समझ कर सभी बातों को कहा।जिन महोदया ने इस विषय में पीट थपथपाती हुई बेज्जती से भेंटा करा दिया। वैसे वे महोदया यू ट्यूब पर मैं भी किसान की बेटी हूँ।किसान कितना सन्तोषी होता हैं फिर भी उससे सीख न लेकर अपनी शाब्दिक पतंग उड़ाती रहतीं हैं और इसमें सन्तोष भी कर लिया कि बेचारे मनुष्य के मुँह पर थूककर एक जूता भी दे मारा।अब बचा क्या है तुम्हारे पास।एक जूता।एक तो मैंने रख लिया है।हेई हेई।वह तो नहीं मिलेगा।कितनी भी जुगाड़ क्यों न लगा लो।तुम बहुत निष्ठुरता से पेश आये थे।तो मैं भी उतना ही निष्ठुर बन गया हूँ।जूता मिलेगा नहीं।हाँ स्वयं मांगोंगे तो मिल जाएगा।यह बात संसारी जूते की है। उस पीताम्बर की अष्टगंध की चाहना भी तो है मेरी।तो है माधव अपने भक्त को इतना तिल तिल कष्ट न दो।मेरा तो शोषण दोनों और ही हुआ है।इसमें सबसे बड़े गवाह तो तुम ही हो माधव।उस स्त्री में हर्षिता की भावना जन्म न ले सकेगी जब तक वह अपने अहंकार को सीमित न कर ले।इतने भी अहंकारित दर्शन की आवश्यकता क्यों आन पड़ी।पता नहीं।इतनी ईर्ष्या वह भी वह भी एक प्रेम भिच्छुक से।तो सुनो हे माधव उनकी ईर्ष्या को प्रेम में बदल दो।हे कृष्ण तुम रहो मेरे हिस्से में।हाय!तुम कौन से कम हो।तुम भी निष्ठुर और भी निष्ठुर।केवल मैं तो तुम्हारे चेहरों को ही देखता हूँ।कौन बोलेगा पहले तुम दोनों में से।हे कृष्ण मुझे तुम चाहिए और तुम भी।मुझे नहीं चाहिए वैराग्य।मुझे तुम चाहिए।तुम कहोगे तो उस कण्टक को भी चुभो लूँ।तुम कहो तो सही।तुम दोनों में से कोई कुछ कहता नहीं है।हाय!मेरी स्तब्धता को छीन लिया।अब असहज हूँ।एक बिना मांगें देता है और एक संसारी इतना निष्ठुर है कि वह तो सीधे मुँह बात ही नहीं करता है।मैं अनशन कर दूँ तुमसे मिलने के लिए और तुमसे भी।मुझे अभिनिवेश तो नहीं है।परन्तु तुम्हारे ज्ञान की परख की कसौटी क्या है और अज्ञान की भी।मैं तो महामूर्ख हूँ।तुमने ही बनाया है।पर क्यों।?
©अभिषेक: पाराशरः