🍀प्रेम की राह पर-55🍀
किसी नए दृष्टिकोण का संज्ञान उन सभी बिंदुओं पर आधारित होगा जो सर्वदा हमनें अपने लिए बचा कर रखे थे कि इन सभी का विकल्प के रूप में उपयोग करेंगे।निरन्तर किसी वस्तु की और संकेत करते रहना उसके महत्व को प्रकाशित करता है और यह भी की उसके प्रति हमारी जिज्ञासा का वर्चस्व कैसा है।उपकृत तो हम इस संसार की हर वस्तु से हैं। चाहे वह सजीव हो या निर्जीव।निजता भी कोई चीज़ है इसे आप अपने तक ही सीमित न करें।इस पर दूसरों का भी ठीक वैसा ही अधिकार है जैसा आपका।निरन्तर प्रवाहशील नदी का मार्ग भी कभी कभी अवरुद्ध हो जाता है।खिलते हुए फूल भी मुरझाते हैं।पके हुए फल भी गिरते हैं।पर हम कितने संवेदनशील हैं इन सभी तथ्यों को लेकर।केवल ज्ञान का गर्व पाल लेना इस संसार में हमें निश्चित ही ठगेगा।अपने बचाव के दौरान शशक जैसी ऊँची छलाँग कोई नहीं लगा सकता।उसके इस बचाव की कला उसके पास जन्मजात है।कोई अभिप्रेरणा तब तक कारगर नहीं है जब वह किसी विशेष लक्ष्य से प्रेरित न हो।एक साधक भी तभी सफल होता है जब वह अनवरत अपने दोषों को समाप्त करते रहता है।किसी वृक्ष की शोभा एक मात्र उसकी छाया से ही तय नहीं की जा सकती है,छाया के साथ उसके पत्तों की हरियाली, प्रसून की सुगन्ध भी कोई स्थान रखती है।आराधना में ईश्वर की महिमा का ही बखान होता है।ईश्वर तो निर्दोष हैं मेरे प्रेम की तरह।हे किलकारी!तुम मेरे इस प्रेम को द्यूत क्रीड़ा समझती हों।तो इसका कोई आवेदन मैंने तुम्हारे प्रति नहीं किया।परं तुमने किसी भी ऐसे व्यवहार का यशश्वी परिचय न दिया जो कि किसी ऐसी झाँकी का प्रदर्शन करती जिसमें कम कम हम अपने उन विचारों को जिन्दा रखते कि प्रेम में परीक्षण भी आवश्यक है तो हमने मात्र परीक्षण का ही प्रदर्शन किया।परन्तु यह सब तुम्हारे कटु व्यवहार से इतना झीना हो गया है कि कहाँ किसी बात को कहना चाहिए वह बात अब रिस जाती है।सम्भवतः विश्वास का माध्यम अब कोरा हो चुका है संसार में जैसे तुम्हारा कोरा प्रेम।मैं तो अपनी गलती मानता हूँ।तुम निष्ठुर के प्रति समस्त संवाद कैसे जीवित हो उठा है और उठता रहता है।वर्षा के प्रथम जल से जब पृथ्वी भींगती है जो विषाक्त फेन के उत्पन्न होने से छोटे छोटे जीव व्याकुल होते हैं।मछलियाँ तड़पना शुरू हो जातीं है और मर भी जाती हैं।मनुष्यों में रुग्णता उत्पन्न हो जाती है।तो मैं तो यह समझ लेता हूँ कि इस संसारी प्रथम प्रेम की वर्षा में जो तुम्हारे ही द्वारा उत्पन्न हुई उस प्रेमधरा से शाद्विक विषाक्त फेन ही निकला जिसमें मैं बेचारा अपनी जान को कैसे बचा रहा हूँ मैं ही जानता हूँ।मुझे पता है तुम इन सभी को पढ़कर छ्द्म हास्य बिखेरती हो।तो हम तो इसमें भी प्रसन्न हैं।तुम कम से कम प्रसन्न तो हो।अधुना मन में कोई तुम्हारे प्रति ईर्ष्या का भाव नहीं है।तुम समझती कुछ भी रहना।मैं किसी चमत्कृत क्षण से तुम्हें दिलाशा तो न दूँगा।तुम अपने विवेक का प्रयोग कर केवल अपनी पीएचडी तक सीमित न रहना।यह जीवन बहुत कठिन है और यह कठिनतम तब और हो जाता है जब अपने निजी व्यक्ति भी विश्वास के बल को तोड़ देतें हैं।धैर्य का परिचय देकर कुछ सन्देश भेजे हैं उन्हें स्वीकार करना यदि अच्छा लगे तो।नहीं तो यह जीवन सिमट जाएगा अपनी फानी जिन्दगानी में।किसी को आसानी से एतबार न करना।यह जगत असत्य है तो इसके सभी व्यवहार भी रूखे हैं।सूखे पेड़ की हरियाली के आने की प्रतिक्षा न करो।लगातार प्रयास करो।हिम्मत न हारना।जटिलता तो आती है।परन्तु परिणाम बहुत सुखद होता है।जुट जाओ अपनी इस कौशल को पैना करने में।तुम निश्चित ही सफल होगी।इससे पूर्व कथन भी कम महत्व के नहीं थे।तो उन सभी पर भी अपने विचारों की सेज पर विश्राम करना।रुष्ट होकर अपने विचारों को कुन्द न करना।यह जीवन है धूप छाँव की तरह।इसे अपने हिसाब से जिओ।धैर्य से।हर जगह संसारी प्रेम के नमूने मिल जायेगें परन्तु जो मात्र अपने श्रद्धा से प्राप्त कर सकोगे वह यह ईश्वरीय प्रेम है।इसलिए मूर्खता को त्यागकर बुद्धि को ग्रहण करो।पता नहीं तुम्हारी बुद्धि कब सुधरेगी।क्यों कि तुम प्रमाणित मूर्ख हो।
©अभिषेक पाराशर