🌺🌺प्रेम की राह पर-48🌺🌺
निर्णायक तथ्यों से परेय जाना उन सभी बातों को भी प्रभावित करता है कि जो उन तथ्यों के प्रति जनों की होशियारी से जुड़ीं होती हैं।चिन्तन तो प्रभावी हो जब उसकी दिशा सही हो।बुरा चिन्तन नज़र भी बुरी करने में सिद्धहस्त है।अनूठी और प्रेमभरी संगति अधुना समाज में मिलना सहज और सरल नहीं है।फिर यदि आप सफ़ल संगति खोजकर्ता और संगतिशिल्पी हों तो उस प्रयास के प्रभाव से आप सज्जनों की उदारता और व्यवहार को परखकर संगति का वातावरण आप स्वयं रच सकते हैं।रचना के प्रभाव के कौशल से ही कविता रचित होती है ठीक ऐसे ही विचारों की श्रेष्ठता के कौशल से संगति की तारतम्यता सुष्ठु बैठती है।कोरे घटिया विचारों से संगति की जल्पना भले ही रचते रहें।किसी भी अवचेतन अवस्था को संगति की अनुपस्थिति में आप प्राप्त नहीं कर सकेंगे।संगति की महत्ता पता चलती है वह भी एक लंबे समय बाद।तब जाकर मात्र अफ़सोस का ख़्याल ही मचलता है।तब तक हमारे समीप संगति के प्रभाव से उपजी भरपूर गुणों और अवगुणों की खेती होती है।दोनों ही अनुभव देती हैं परन्तु उस अवस्था तक सही और गलत का चुनाव स्वतः ही सब कुछ कह देता है।उस समय संगति के दुष्प्रभाव से हुई त्रुटियों का बड़ी ही कठिनता से स्वीकार करने की सामर्थ्य आती है।एक व्यवस्था ऐसी भी होती है कि हम दुष्ट संगति में रहते तो हैं परन्तु वह हमें स्पर्श भी नहीं करती है।यह व्यवस्था बहुत लम्बे अनुभव से आती है और फिर मैंने तो संगति की ओर सर्वदा ही ध्यान दिया।कभी कभी मुझे अच्छी संगति में भी बुराई दिखाई दी,वह भी तब जब उसके समर्थकों के विचारों को जाना।सबके विचारों की योजना पाताल में थी।संगति की यात्रा इतनी आसान नहीं है।कभी स्वतः ही मिल जाये और कभी कितनी भी जुगाड़ लगा लें तो भी न मिले।तो मित्र तुम्हारे प्रति संगति की एक नई योजना की पृष्ठभूमि बनाने को तत्पर था।किसी की संगति के मुझे आवश्यकता नहीं है क्योंकि मैं तो पीताम्बरधारी और कोदण्ड धारी की संगति का अनुशरणकर्ता हूँ।परन्तु हे मित्र!तुमने किसी भी एक ऐसे वार्ता का समन्वय न बैठाया कि जिसे एक अच्छी संगति देने के आधार पर स्वीकार किया जाता।तुम सदैव इधर-उधर की वार्ताओं में अपने सिद्धान्तों की पोटली खोलती रहीं।हे कृष्ण मुझे आपके प्रति प्रेम से अपेक्षा है मैं उस प्रेम में जीना चाहता हूँ और उस प्रेम से मृत्यु का आलिंगन भी करना चाहता हूँ।असाधारण न बनकर मैं तो आपके प्रेम में साधारण जीऊँगा।किसे देखूँ तुम जैसा।कोई मिलता ही नहीं है।सब उस वंचना के लिए दौड़ रहे हैं जिसे यह जानते हुए कि यह तो पाप है।फिर भी ऐसे धावक बने हुए हैं कि उस वंचना के स्वामी हम ही बन जाएं।परन्तु हे मित्र मैंने न तो तुम्हें वंचना ही माना और न हीं उसका स्वामी।फिर या तो तुम मुझे वंचक समझते हो या अपना शत्रु।किस विषय को लेकर कभी भी तुमसे अन्यथा संवाद भी नहीं किया।निरुत्तर ही रहकर तुम अपने अहंकार को ही जन्म दे रही हो और ज्ञान के उबाल को भी शान्त कर रही हो जो निश्चित ही लोगों का भला कर सकता है।संकेत क्या हो किससे हो।कोई किस्सा अथवा कहानी के माध्यम से भी है हे मित्र तुमसे शुरू न हो सका उसका उत्तर।यह सब दोषारोपण,विनोद, प्रसन्नता, हास-परिहास,व्यक्तिगत उदण्डता,पिशुनता,मत्सरता,विमत्सरता आदि गुणावगुण मनुष्य की व्यक्तिगत उपज हैं।मनुष्य निर्दोष होकर कर्मों के विपाक के साथ जन्म लेता है।उन कर्मों से ही वह अपने गुणावगुण प्रकट कर लेता है।फिर तो वह किस कथा का पात्र बन जाता है।पता भी नहीं।तो हे मित्र!मैंने तुम्हारे अन्दर किसी भी अवगुण का स्थान न देखा था और कोई जन्मजात हो और अधिक प्रक्षिप्त हो तो ही भला छिपा रहे।मैं मात्र तुम्हें परखने के लिए इतना सन्निपात हुआ था केवल और किसी सुन्दरता आदि का प्रलोभन मन में न बसाया था।और हे मित्र!तुम कितने सुन्दर हो तुम स्वयं ही जानते हो।तो इसके प्रति भी अपनी विमत्सरता का जन्म दो।ज़्यादा असत्य संवाद से विचार भी मूक-बधिर हो जातें हैं और विचारों में प्रेरणा न हो तो वे पंगु हो जातें हैं।शायद मैं उक्त से अधिक पीड़ित हूँ तभी तो हे कृष्ण तुम्हारे पिताम्बर से वंचित रह गया और हे कठपुतली!तुम्हारे उन सभी मेरे प्रति पूर्व प्रत्याशित दोष दृष्टि की उत्पन्नता के कारण संसारी प्रेम से।तुम किसी भी प्रेमिक पृष्ठभूमि का मंचन नहीं कर सकोगी अब।
©अभिषेक पाराशर