🌺🌺प्रेम की राह पर-47🌺🌺
कदम्ब के शुष्क फूल कभी हरे-भरे थे उस वृक्ष के।शायद उसका भी अपना समय रहा होगा।अब एक भी पत्ता हरा न दिखाई दिया।काफी समय बाद उससे मिला।उसे पूर्ण यौवन से भरा देखा था मैंने।बड़ा कष्ट हुआ उसके एक सूखे ठोस बीज को तोड़ते समय।कैसा है यह जीवन।कुछ पता नहीं।शैशवावस्था से वृद्धावस्था तक।कौन काना हो जाये और कौन पंगु।किसी भी स्थिति से परिस्थितियों के वशीभूत होकर गुजरना इतना सरल नहीं होता है।नितरां यदि परिस्थितियाँ सुकर रहीं तो बहुत आसान होगा नहीं तो स्वयं को लोगों की नजरों से बचाकर घसीटते रहो।उत्साही का उत्साह एक सीमा तक शक्ति प्रदर्शन करता है।वह भी शक्तिहीनता के साथ तिरोहित हो जाता है।यद्यपि वह उत्साही उस अनुभव को जीवन भर उपयोग करता है।परन्तु फिर भी उस धब्बे को वह कभी भी मिटा न सकेगा कि वह लघुसमय के लिए असहाय बनकर पराजित हुआ।निरन्तर किसी वस्तु की चाहना तदा प्रभावी है जब वह परमार्थिक भावना से ओतप्रोत हो।तुहिन का शीतकाल में बार-बार गिरते रहना किस काम का।अर्थात वह केवल तापमान को नियंत्रित भर करने का कार्य करेगा।हाँ यदि वह शुष्क मौसम में लोगों की गर्मी को शान्त करे।तो उसका प्रयोजन अधिक सफ़ल होगा।परं यहाँ सभी सुख की छलाँग मारने तक का चिन्तन है।अधिकृत सुख किसी का न रहा।जिसकी जितनी संसार में ममत्व बुद्धि है उतना ही दुःख उसके हिस्से में स्वयं ही सोच-सोचकर आ जाता है।फिर ममता के हिस्से का दोष परमात्मा को दे देता है संसारी जीव।तो मित्र मैंने तुम्हें किसी भी प्रकार के दुःख को नहीं दिया और न हीं इतनी ममता का प्रदर्शन तुम्हारे हिस्से के लिए रखा है।मैंने पहले ही बताया है कि मेरा तो सब गिरवी रखा है परमात्मा के यहाँ।किसी भी परिस्थिति के लिए चाहे वह सुखद हो या असुखद मैं राजी रहता हूँ।परन्तु दुःख इस बात का है कि कृष्ण तुम्हारे समीप सब गिरवी रखने के बाबजूद भी तुमने अपना पीताम्बर नहीं दिया मुझे अभी तक।मैं जानता हूँ कि यह छल तो नहीं है परंन्तु इतनी भी परीक्षा ठीक नहीं कब तक मुझे दिलाशा देते रहोगे।वह क्षण कब आएगा मेरे जीवन में।यह कौन सी आकषिक है तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम की।मैं तुम्हें छलिया तो नहीं कह सकता हूँ।उस पावन सुगन्ध को मैं महसूस तो कर ही सकता हूँ।तुम मेरे बारे में क्या सोचते होगे यह नहीं सोचता हूँ पर हाँ सोचते हो यह जरूर सोचता हूँ।इससे तो श्रेष्ठ मैं संसारी ही ठीक हूँ।कम से कम संसारी प्रेम में कोई प्रत्यक्ष थूकता तो है।कोई जूता तो मारता है।पर तुम्हारा तो हे कृष्ण हृदय से उमड़ते हुए प्रेम के अलावा कहीं कोई दर्शन भी न हुआ।किससे शिकायत करूँ।श्री जी से।वह तो बहुत भोली हैं।वह तो मुझे वृन्दावन बुला लेती हैं और तुम कभी पिघले ही नहीं अपना पीताम्बर देने के लिए।तुमने कभी मुझे वृन्दावन न बुलाया।मैं जानता हूँ।हे मित्र!तुम्हारे मुख से भी कभी कोई शान्ति के वचनों को न सुना।पता नहीं किस बिन्दु से इतना कर्कश व्यवहार ही शान्ति से सुना दिया था तब।इतनी कर्कशता का व्यवहार मैं सोचता हूँ कि कहीं जन्मजात तो नहीं था।हाँ, शैशवावस्था में माँ का दूध न पीने मिला हो तो हो गया हो कुपोषित हृदय और मन।अंधाधुंध शाद्बिक प्रहारों से किसी के मन और हृदय पर घाव कैसे दिए जा सकते हैं यह शायद बचपन से माता पिता ने सिखाया हो।यह इतना ही भर नहीं है।कहीं अज्ञातवास में भी रहना भी पहले से सीख रखा हो।खेतों की पगडंडियाँ यदि पतली हों तो उन पर बड़ी सावधानी से चलना पड़ता है।अन्यथा पैर में मोच आने की पूर्ण सम्भावना रहेगी।हे मित्र!तुम मेरे लिए खेतों की पगडंडी जैसी रही।मैं सशंकित तो था कि कहीं उपहार में मोच न दी जाए।तो मुझे वह मिला पर,मोच भी और घाव भी।समाज की वह प्रत्येक घटना जो जनों को अवपीडक़ होती है उससे लोग शिक्षा लेते हैं।मैंने किसी भी शिक्षा का ग्रहण कभी नहीं किया।जिसका दुःखद परिणाम मुझे तुम्हारे कर्कश शब्दों के रूप में मिला और अभी भी तुम भिन्न भिन्न तरीकों से अपने सन्देशों को एक अगम्भीर की तरह उपलब्ध कराते हो।अपनी पुस्तक तो अभी तक भी भेज न सके।यह कोई शिक्षित होने की निशानी नहीं है।तुम्हारे अन्दर अभी भी एक शैतान बचपन बैठा है।सम्भवतः इसलिए गम्भीर नहीं हो।यह तब हो रहा है जब सब ज्ञात हो चुका है।नहीं तो कुछ भी अपनी गम्भीरता की पुष्टि के लिए सीधे ही सन्देश भेजा जाता।यह कैसा विनोद है।यह तो उपहास उड़ाया जा रहा है मेरा। चलो ठीक है।
©अभिषेक: पाराशरः