🌺प्रेम की राह पर-45🌺
अनुस्यूत परिस्थितियों में तुम्हारे लिए एक शब्द का प्रयोग किया था।खुमार।पर वह क्यों था।इसलिए नहीं कि चारों तरफ इसका गान कर दो।परन्तु तुमने एक साधु हृदय नर की साधुता को तोड़ दिया और स्वयं बन गई स्वर्ग की अप्सरा रम्भा।भंजन कर दिया एक साधु का वैरागी आधार।वह भी एक स्त्री के लिए उक्त शब्द का प्रयोग करके।अब तो उस साधु के चित्र और मिल गए हैं।जिससे एक उदासीन स्त्री को विनोद में दिया संवाद अब पूर्ण रंजित भावना से हँस-हँस कर प्रस्तुत किया जा रहा होगा और सभी सन्देशों की भाषा को नोक से नोक मिलाकर मिलाया जा रहा होगा और उपहार में वाहवाही तो सर्वश्रेष्ठ मिल रही होगी।क्या आदमी फँसाया है एक साथ आनन्द का समुद्र उड़ेल दिया है।हे गौरैया!तुम्हारी चयनित विचार धारा निश्चित ही उस उपसंहार को जन्म दे रही है कि सर्वदा निष्कलंक बातें यदि किसी के सम्मुख प्रस्तुत की जाएँ तो हास्य का ही परिणाम प्रस्तुत करेंगी।परं हे मूषिके! तुम कदापि मूर्ख नहीं हो।तुम्हारा आखर पत्रिका का लेख पढ़ा है।सीधा और सरल भाषा में है।आज़ाद परिन्दे की तरह तुम्हारे विचार अच्छे लगे।फिर उस स्थान को छोड़ क्यों गये हो।जहाँ से अपने गुमाँन को नवीनाधार प्रदान किया।मैंने तुमसे किसी अधिक धनवान वस्तु की चाह तो नहीं की थी।तुम्हारा सहयोग माँगा था।सहयोग के रूप में तुमने अपनी एक खड़ाऊँ और बलग़म दे दिया है।बलग़म को तो अपने शरीर की पैथोलॉजी पर स्थान दे रखा है,जाँच रहा हूँ उसमें प्रेमरुग्णता के लक्षण और खड़ाऊँ को सहेजकर रख लिया है।पर पता नहीं कि तब से कहीं नंगे पैर से ही घूम रहे हो क्या ?।यदि तुम्हारे पैरों में काँटे लगें तो मुझे दोष न देना।मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी खड़ाऊँ तो वापस कर दूँ।परन्तु कैसे। सभी मार्ग अबरुद्ध कर रखे है तुमने।कैसे प्रबेश करूँगा उन मार्गों में में।तुम इतने निष्ठुर हो कि अभी तक एक सामान्य परिचय पर भी कोई वार्ता नहीं की है।अभी बात करूँ क्या पता दे दो अपना दूसरा खड़ाऊँ।चिन्ता तो यह है कि तुम नग्न पैरों घूमोगे तो भी दुःख होगा और कण्टक प्रवेश हुआ तो भी दुःख।पर इंद्रप्रस्थ में काँटें कहाँ है।वहाँ तो शूल हैं।वहाँ लोगों ने मुझे शूल ही दिए।कुछ शूल जो तुमने ले रखे हैं।उनमें से एक शूल तो मेरे भी टाँक दिया है।जिसे निकालता रहता हूँ।सिवाय कष्ट देने के वह निकलने का नाम ही नहीं लेता।रह रह कर उससे कष्ट का बोध होता है।तुम एकान्त में कभी सोच तो लिया करो।तुम्हारी ठगिनी मुस्कान फिर न देखने मिली है।जाने क्या ऐसा ही रहेगा इस बंजर भूमि पर एक ही वृक्ष लगाया था।जिसे तुमने कभी अपने स्नेह से सींचने की कोई कोशिश ही नहीं की।पेशों पेश स्थिति में अब एक कदम तो आगे बढ़ सकते हो।आपनी किताब तो भेज देना।प्रतीक्षित पाठक के रूप में बड़ी रुचि से लगा हुआ हूँ।मुझे पता है रेवडी तुम न भेज सकोगी।इज्ज़त का प्रश्न बना लिया होगा तो बना लो।इसके लिए भी किसी से सिफ़ारिश करानी पड़ेगी।तो वह भी बताओ।नहीं फिर तुम्हारी इच्छा।पता नहीं क्यों नहीं भेज रही हो।मैं क्या किसी से कहूँगा।इस विषय में उत्सर्प हो चुकी मेरी भावना को मध्य में लाने का प्रयास करो।यह धारणा कि तुम कभी पुस्तक नहीं भेज सकोगी भी तभी मध्य में स्थान पाएगी।चलो तुम्हारा मौन व्रत विजयी रहा।इतनी सज्जन तो नहीं हो द्विवेदी जी की लाली।तुम चंगेजी हो।दूसरी ओर “कार्पण्य दोषोपहतः स्वभाव:”से हम पीताम्बर लेने के लिए उनके पास चले गए पुकारते रहे कोई कैसा भी सरल उत्तर न मिला।अष्टभंगी कृष्ण तुमने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है।तुम भी मेरे रुदन में अपना हास्य खोजते होगे।हँसो ख़ूब हँसो।तुम काले हो जानते हो।तो क्यों हमें किसी अन्य रंग में रंगने दोगे।तुम्हारे अधरोष्ट लाल है।तो हमें भी लाल बना दो।तुम ऐसे जाल में हमें फँसा देते हो कि कोई इससे निकालने की सम्यक् विधि भी नहीं जानता है।सभी यही कहेंगे कि उनके पास जाओ वही बताएंगे।हे योगीराज कोई ऐसा योग दे। दो।तुमसे कभी अलग न होऊं।तुम कितने प्यारे हो।हे कृष्ण मेरे सिर पर अपने हाथों का सुखद और परमानन्द प्रदायक स्पर्श कब दोगे।मुझे पता है कि मैं संसारी प्रेम में अस्पृश्य हूँ पर तुम तो मुझे चाहते हो कृशनू।संसार तो महाझूठा है।तुम मेरे सत्य के प्रतीक हो।तुम्हारी करधनी कितनी प्यारी है।तुमने इतना माखन खा लिया है कि मेरा स्मरण माखन तुम्हे शायद स्पर्श भी नहीं करता।तो उपहास तो बनाओगे ही मेरा।कभी अपने हाथों से माखन खिलाओ मुझे।मेरे कृष्ण और तुम बगुली मेरे लिए अपनी किताब भेज दो।तुम्हें क्या प्रलोभन दूँ।तुम भी सब जानती हो।सब देखती हो।तुम कानी तो नहीं हो।यह भी जनता हूँ।मैं तुम्हें बता दूँ कि निन्यानवे के फेर वाले कोई कृत्य मुझसे न होंगे।देख लो।मैं तो कृष्ण रंग में पगा हुआ हूँ।तुम रूपा!ऐसा क्या एहतिमाल किये बैठो हो।तुम तो महा उपद्रवी हो।शान्ति का कोई समझौता ही नहीं प्रस्तुत किया।फूटी खोपड़ी।मेरे कृष्ण तुम ही कुछ करो।करो कुछ।
@अभिषेक: पाराशरः