☆☆☆ यथार्थ ☆☆☆
जीवन का मूल्य !
अर्थहीन वाक्य की तरह
इस सदी की कोरी कल्पना है
जिसे हम यथार्थ समझते हैं ।
आधुनिक सभ्यता के नग्न परिवेश में
हमारी पारंपरिक मान्यताएं
ठूंठे वृक्ष जैसी दीखती हैं।
‘ साहित्य ‘ समाज का’ दर्पण ‘ नहीं
एक मिथक लगती हैं ।
ऊंची अट्टालिकएं ,
अंतरिक्ष में तैरते उपग्रह,
मानव के बौद्धिक क्षमता का
प्रतीक बनी है।
भुखमरी , कुपोषण , रंगभेद
सभ्य समाज में
अभिशाप नही
एक बोध है
जो मंचों से
यदा- कदा कही जाती हैं।