★ अनुत्तरित -प्रश्न ★
बात हमारे आपके बीते हुए दिनों की है । हिन्दुओं में छुआछूत की भावना बड़ी प्रबल थी । प्रत्येक ऊँची जाति अपने से नीची जाति के लोगों के यहाँ, उनके साथ बैठकर खान – पान से परहेज करते थे । अन्य दूसरी जातियों की बात तो दूर की रही । यह एक कटु सत्य था – हिंदू का लोटा भी अगर अपने से नीची जाति या अन्य दूसरी जाति के लोगों से छू भी जाता था तो उसे अपवित्र मानकर दोबारा उसका प्रयोग कभी नही करते । वैवाहिक समारोह या अन्य समारोह में मुस्लिम समुदाय के लोगों को न्यौता दिया जाता था, मुस्लिम लोग न्यौते को सहर्ष – सप्रेम स्वीकार करके समारोह में शामिल भी होते थे । लेकिन ! जब खान – पान की बारी आती थी ,तब मुस्लिम भाइयों को अन्यत्र बैठाकर खिलाया जाता था ।यही रीति अपने से नीची जाति के लोगों से भी अपनाया जाता था । प्रत्येक हिन्दू के घर में पानी पीने का गिलास तक अलग रखा जाता था ।
छुआछूत का इतना विभेद होते हुए भी गांव – गिराव से लेकर शहरी समाज तक के लोगों में आपसी भाईचारा, प्रेम – सौहार्द भी इतना प्रबल था कि लोग एक दूसरे के सुख – दुख में भागीदार थे ही ,दूसरे की बहू – बेटी को अपनी ही बहू – बेटी मानते थे । रिश्तेदारो तक को भी यही सम्मान मिलता था । अलगाव – विद्वेष की भावना दूर – दूर तक नजर नही आती थी ,एहसास तक नही होता था । प्रेम की भावना तो ऐसी थी कि उसे शब्दों में व्यक्त ही नही किया जा सकता ।
आज की युवा पीढ़ी में ,शिक्षित सभ्य समाज में छुआछूत की उपरोक्त प्रबल आचरण का नामो – निशान नही रह गया है । लोग संग – साथ ही नही ,एक ही थाली में मिल – बैठकर खाते हैं । लेकिन ! इतना सब होने के बावजूद दिलों में प्रेम-सौहार्द की भावना और प्रबल होने के बजाय दिलों की दूरियां बढ़ती जा रही हैं । धर्म / मजहब / जाति के नाम पर आज हर इंसान एक – दूसरे को शक की नजर से देख रहा है । दूसरे की बहू – बेटी को अपनी बहू – बेटी का दर्जा भी लुप्त हो गया है । दिखावे के लिए ऊपरी तौर पर हमदर्द नजर आते हैं लेकिन अंदर ही अंदर खुदगर्ज से भी बदतर हैं ।
मेरा अपना मन एक सवाल बार – बार करता है → आखिर ऐसा क्यों है. ….? क्यों हो रहा है. …? हम क्यों कर रहे हैं ……?
लोगों से भी मेरा यही एक अनुत्तरित सवाल है. ….?
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उत्सव मनाने की परंपरा सभी देशों में है । ईश्वर, प्रकृति और मानव जाति के परस्पर संबंधों को पर्वों और उत्सवों के रूप में मनाया जाता है । उत्सव मनाने की परंपरा सभी देशों में है । ईश्वर , प्रकृति और मानव जाति के परस्पर संबंधों को पर्वों और उत्सवों के रूप में मनाया जाता है । उत्सव मनाने की परंपरा हर देश में ,वहां के समाज और संस्कृति के अनुरूप विकसित हुई । लगभग सभी उत्सव आनंद का स्वरूप है और मानवीय जीवन में अपना – अपना स्थान रखते हैं ।
बात बहुत पुरानी नही है , हमलोगों के बचपन के दिनों की बात है । जब भी कोई पर्व – त्यौहार ,चाहे वह ” होली – दशहरा – दिवाली ” हो या ” ईद – बकरीद ” हो ,तब लोग इन त्यौहारों के नजदीक आने के दिन गिनते थे । तैयारियां तो महीनों पहले ही करने में जुट जाते थे । ज्यों – ज्यों ये दिन नजदीक आते थे ,समाज के सभी समुदायों में एक अव्यक्त जोश – उल्लास – उमंग पनपने लगता था । प्रत्येक त्यौहार में समाज के सभी समुदायों के लोग शिकवे – गिले भुलाकर आपस में एक – दूसरे की खुशियां आत्मसात कर लेते थे । जबकि उस जमाने के लोग आज के कथित आधुनिक , सभ्य – शिक्षित लोग की अपेक्षा कम पढ़े – लिखे थे । गंवार की संज्ञा से परिभाषित थे । आधुनिकता से कोसों दूर किसी तरह वे अपना जीवन यापन करते थे ।
लेकिन !आज हमारा आचार – विचार ,नैतिक मूल्य बोध ,सोच इतना ‘ संकीर्ण – संकुचित – दूषित ‘ हो गया है कि पर्व – त्यौहार , मनामनाने की पराप्राचीन परंपरा एक ‘ वोझ ‘ बनकर रह गई है मेल-मिलाप , सौहार्द के बजाय शंकालु – इर्ष्यालु हो गये हैं।
तभी तो हर त्यौहार के निकट आने पर हम उसका सोल्लास आवभगत करने के बजाय दहशत में जीने लगते हैं । महीनों पहले पुलिस – प्रशासन का दखल हमारे मौलिक जीवन में बढ़ जाता है । पी.ए.सी. ,अर्धसैनिक बलों की टुकड़ियां गांव – नगर में मार्चपास्ट करने लगती है । सभी थानों में शांति कमेटी की बैठकें शुरू हो जाती है ।
कहने का आशय यह है कि आज हम लोग हर पर्व – त्योहारों पर दहशत भरे माहौल में जीने को विवश हैं । ईश्वर के प्रति आस्थावान होने के बजाय यह प्रार्थना करते हैं कि किसी तरह जैसे – तैसे शान्ति पूर्वक यह त्यौहार
‘ निपट ‘ जाए ।
इन पर्वों – त्योहारों की परंपरा डालने वाले हमारे पूर्वजों की सोच के पीछे एक वैज्ञानिक सार्थकता छिपी थी । उन्होंने कभी यह कल्पना भी नही की होगी कि भविष्य में एक समय ऐसा भी आएगा जब इन पर्व – त्योहारों का ‘ मूल अंश ‘ ही तिरोहित हो जायेगा । जिस समाज ,समुदाय में पर्व – त्यौहार अर्धसैनिक बलों ,पी.ए.सी. के राइफलों के साए में मनाये जाए ,उस समाज को चुल्लू भर पानी तो क्या ‘ सूखे रेत ‘ में डूबकर मर जाना चाहिए । इसी के हकदार हैं आज के ‘ सभ्य ‘ लोग ।
यदि हम थोड़ा सा भी संकल्प सच्चे मन से कर लें तो पर्वों – त्योहारों की परंपरा डालने वाले हमारे पूर्वजों के प्रति समर्पित हो सकते हैं । वही पुराना उमंग – उल्लास ला सकते हैं । बस इतना भर करना है कि समाज के थोड़े से लोग सामने आ जाए और पुलिस – प्रशासन से दो टूक कह दे कि इस बार त्यौहार हम लोग अपने देख-रेख में अपने सुरक्षा मे अगुवा बनकर सम्मलित होकर प्रेम-सौहार्द के साए में मनायेंगे । आप लोगों को इस विशेष अवसर पर हमे जरूरत नही ।
यदि नही कह सकते तो हम आदिवासियों – बनवासियों से भी बदतर हैं ।