■ संस्मरण / यादों की टोकरी
#संस्मरण
■ जब हमने करवाई रासलीला
【प्रणय प्रभात】
यह बात 1980 के दशक के आरंभ की है। जब भगवान श्री कृष्ण की मनोहारी लीलाओं की धूम हुआ करती थी। धर्मप्राण श्योपुर का सनातनी समाज उद्देश्यपरक व सार्थक आयोजनों की महत्ता समझता था। शायद यही वजह थी कि श्रीधाम वृंदावन की महारास मंडलियों के भ्रमण में श्योपुर प्रवास भी सम्मिलित होता था। पूरे ताम-झाम के साथ आने वाली इन मंडलियों का उद्देश्य भी शायद धर्म व कला का प्रचार-प्रसार होता था। व्यावसायिकता होती भी होगी तो आटे में नमक जितनी। सभी को अपने परिवार का भरण-पोषण आखिर करना ही पड़ता होगा। बहरहाल, एक मंडली ने श्योपुर में डेरा डाला। नगरी के तमाम मोहल्लों में एक-एक लीला के मंचन का दौर शुरू हुआ। सरावगी मोहल्ले में हुए मंचन को देखने हम पंडित पाड़ा वाले परिवार भी पहुँचे। मंचन देखते में ही विचार बना कि एक मंचन अपने मोहल्ले में भी कराया जाए। लीला ख़त्म होने के बाद मंडली प्रमुख जी से चर्चा हुई। उन्होंने अगला दिन छोड़कर कभी भी मंचन करना स्वीकार लिया। हम सब “शुभस्य शीघ्रम” वाली सोच रखते थे। सारे मोहल्ले की एकता तब भरोसे की बात थी। तुरंत तय हुआ कि तीसरे दिन का मंचन हमारे अपने मोहल्ले में होगा। हम “सुदामा चरित्र” प्रसंग का मंचन कराना चाहते थे। संयोग से इस मंडली को अगले दिन यही मंचन करना था। लिहाजा यह तय हुआ कि गीता भवन के तिराहे पर “कालिया मर्दन” की लीला का मंचन होगा। दक्षिणा मात्र 251 रुपए और एक समय का शुद्ध-सात्विक भोजन। उस समय यह राशि बहुत छोटी नहीं थी। अगले ही दिन हम बालकों और किशोरों ने दो-तीन महिलाओं की अगुवाई में चंदा जुटाना शुरू किया। जिनमें मेरी छोटी बुआ (बीना बुआ) अग्रणी थीं। ईश्वरीय कृपा से शाम तक लक्ष्य पूरा भी हो गया। भोजन पड़ोसी शिक्षक श्री हृदयेश चंद्र पाठक जी के घर पर बनाना और कराना तय हुआ। हमारे और पाठक परिवार सहित श्री बाबूलाल जी शर्मा, श्री भैरूलाल जी गंगवाल, श्री लक्ष्मीनारायण जी गुप्ता (नागदा वाले), श्री मूलचंद जी स्वर्णकार,
श्री मानकेश्वर राव बूँदीवाले परिवार की कुछ महिलाओं ने भोजन बनाने की इच्छा जताई जो सोने पर सुहागा जैसी थी। अंततः वो दिन भी आ गया जब हमारे मोहल्ले में लीला का मंचन होना था। क़रीब 30 सदस्यों वाली मंडली नियत समय पर पधारी। सभी को आदर भाव के साथ पारिवारिक व आत्मीय परिवेश में भोजन कराया गया। गाढ़ी व लच्छेदार स्वादिष्ट खीर, गर्मागर्म पूरियाँ, आलू-मटर की रसीली तो कद्दू की सूखी सब्ज़ी। साथ में बूँदी का जलजीरे वाला रायता। प्रेम और श्रद्धा से भरी मनुहार मंडली को बहुत भाई। भोजन से निवृत्त होने के बाद सभी कलाकार व सहयोगी गीता भवन पहुंच गए। जहाँ उन्हें सॉज-श्रंगार से पूर्व कुछ विश्राम करना था। इधर हमारी टीम गीता भवन के बाहरी बारामदे को मंच बनाने में जुट गई। अच्छी अच्छी साड़ियां घरों से मंच सज्जा के लिए लाई गई। बिछायत के लिए साफ-सुथरे गद्दे-चादर भी घरों से ही जुटाए गए। सवाल आखिर पूरे मोहल्ले की शान का था। जो साझा परिश्रम से सलामत भी रही। सभी परिवारों ने कालिया मर्दन की लीला का आनंद लिया। दर्शकों में आसपास के अन्य उपक्षेत्रों के परिवार भी थे। छोटी सी जगह में शानदार मंचन से सभी का उत्साह सातवें आसमान पर था। राधा, कृष्ण, नंद बाबा, यशोदा मैया, बलदाऊ, श्रीदामा, मनसुखा सब परिवार के सदस्य जैसे लगने लगे। मंचन के बाद उनकी विदाई में आँखें यूं भीगीं, मानो वो मोहल्ला नहीं शहर छोड़कर जा रहे हों। यह आत्मा का परमात्मा के कृत्रिम स्वरूपों से वास्तविक लगाव ही था। मंडली के विदा हो जाने के बाद सारा सामान यथास्थान पहुँचाया गया। अगले एक पखवाड़े तक आयोजन को लेकर चर्चाओं का सिलसिला चलता रहा। एक दूसरे की खुले हृदय से सराहना की गई। हम बच्चों का भी जम कर उत्साह बढ़ाया गया। मोहल्ले के परिवारों की इस एकता व समरसता ने कालांतर में बड़े कार्यक्रमों की भूमिकाओं को आधार दिया। जिनका उल्लेख फिर कभी। फिलहाल, जय राम जी की। जय श्री कृष्ण। राधे-राधे।।
【यह संस्मरण गत दिनोंमालवा हेरॉल्ड, जबलपुर दर्पण और कोलफील्ड मिरर में एक साथ प्रकाशित हुआ है】