■ संस्मरण / आख़िर, वक़्त निगल ही गया रसमयी धरोहरें।
#संस्मरण
■ आख़िर, वक़्त निगल ही गया रसमयी धरोहरें
★ यादों में क़ैद जीवन की संगीत यात्रा
【प्रणय प्रभात】
1980 का ही था वो दशक, जिसने घरेलू मनोरंजन के साधन बढ़ाए। साथ ही गीत संगीत के क्षेत्र में बड़ी क्रांति लाने का काम किया। सन 1982 के एशियाई खेलों के दौर ने तमाम घरों तक श्वेत श्याम टेलीविज़न पहुंचाने का काम किया। यही समय था जब बाज़ार में पहली बार टू-इन-वन प्रचलन में आया। टू-इन-वन यानि एक ही सेट में रेडियो और टेप रिकॉर्डर दोनों का मज़ा। नामी कम्पनियों के सेट आम परिवारों के बजट में नहीं थे। भला हो उन लोकल कम्पनियों का जिन्होंने कामचलाऊ सेट्स बना कर बाज़ार में उतारे। हमारे जैसे लाखों घरों में टेप रिकॉर्डर पहुंचने का दौर 1984 के आसपास शुरू हुआ। जो 1988 तक पूरी रफ़्तार में चला। इस दौर में कर्णप्रिय गीत-संगीत को घरों तक ले जाने का काम तमाम कम्पनियों ने किया। जिन्होंने मंहगे स्टीरियो यानि रिकॉर्ड प्लेयर और ग्रामोफोन को दूर से देखने वालों को संगीत की दुनिया से जोड़ा। बड़े नगरों से छोटे शहरों और कस्बों के रास्ते टेप रिकॉर्डर छोटे-छोटे गाँवों तक आसानी से पहुंच गए। यही समय था जब एक अदद टू-इन-वन लाने की ज़िद हम भी ठान बैठे। दो-चार रोज़ बहलाए-फुसलाये गए। लगा कि पापा मानेंगे नहीं तो मम्मी को पटाया गया। फिर एक दिन वेतन के साथ घर आईं मम्मी ने पसीज कर हमें 00 रुपए थमा दिए, और हम चल दिए बोहरा बाज़ार की ओर। क़रीब एक घंटे बाद लौटे तो हाथ में था एक डिब्बा। इसी डिब्बे में था 450 रुपए वाला एक टू-इन-वन। साथ में 20-20 रुपए वाली दो कैसेट्स भी। एक में अनूप जलोटा के भजन, दूसरे में पंकज उधास की ग़ज़लें। पूरी आवभगत के साथ उस टू-इन-वन को एक उचित स्थान पर सजा कर रखा गया। कोशिश पापा की नज़रों से छिपाकर रखने की थी। जिन्हें ज़रा भी होहल्ला पसंद नहीं था। नसीहत मिली कि टेप हर समय नहीं बजाया जाएगा। नसीहत का पालन दो दिन नियम से हुआ। तीसरे दिन से अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करने और सुनने का कौतुहल पैदा हुआ। दोनों कैसेट्स के अंत में बची जगह को काम में लिया गया। पहले रेडियो की आवाज़ टेप में रिकॉर्ड की गई। फिर ख़ुद की आवाज़ के साथ यह प्रयोग रोज़ का नियम हो गया। एक दिन पापा की निगाह में टेप आ गया और उसे छुपाने का झंझट खत्म हो गया। भौतिकतावाद से विलग रहने वाले पापा को टेप रिकॉर्डर अच्छा लगा। अगले दिन वो अपने दौर की फिल्म “बरसात” और “बरसात की रात” की कैसेट्स ले आए। जिन्हें तमाम बार सुना गया। इसके बाद पापा के ऑफिस और मम्मी के स्कूल जाने के बाद घर का माहौल म्यूज़िक स्टूडियो जैसा बनने लगा। सेजने वाली गली स्थित पँचयतीं घर में किराए से रहने वाले विजय शर्मा के साथ प्रयोगों का दौर साल भर से ज़्यादा चला। गाना, बजाना और उसे रिकॉर्ड कर सुनने के शौक़ ने कई कैसेट्स बिगड़वाए। बेचारा टू-इन-वन भी आत्मसमर्पण करने की स्थिति में आ गया। तब तक कैसेट किंग गुलशन कुमार जी की कम्पनी टी-सीरीज़ इस क्रांति को महाक्रांति बना चुकी थी। वीनस और सोनी की मंहगी कैसेट्स का सस्ता विकल्प बनकर टी-सीरीज़ की कैसेट्स ने बाज़ार पर लगभग एकाधिकार जमा लिया था। इस कम्पनी की खाली कैसेट महज 5 रुपए में सहज उपलब्ध थी। वहीं भरी हुई कैसेट 10 से 12 रुपए में आ जाती थी। हम जीवन के पहले टू-इन-वन का कबाड़ा कर चुके थे। लेकिन शोर-शराबे से कोसों दूर पापा का संगीत प्रेम तब तक पुनः जाग चुका था। ख़राब टू-इन-वन की जगह पापा द्वारा मंगवाए गए दूसरे सेट ने ले ली। जो पहले से लगभग तीन गुना मंहगा था। यह और बात है कि था ये भी दिल्ली मेड ही। जिस पर मार्का यूएसए का लगा हुआ था। अब घर में नई-पुरानी कैसेट्स का खानदान बढ़ता जा रहा था। भजनों और ग़ज़लों के अलावा उस दौर की फ़िल्मों के गीतों की कैसेट्स बड़ी संख्या में जमा हो चुकी थीं। हर कैसेट से हम लोगों की आवाज़ कभी भी गूंज उठती थी। टेप रिकॉर्डर में फँस कर उलझने वाली टेप को निकालने और जोड़ने में महारत हो चुकी थी। बारीक वाले पेचकस से कैसेट्स को खोल कर सुधारना या पेंसिल से घिर्री घुमाते हुए बाहर निकल आए टेप को अंदर करना आए दिन का काम हो गया था। इस कारस्तानी के दौर में पूरे चार नट किसी किसी कैसेट में ही पाए जाते थे। बाक़ी की सेवा दो या तीन नटों पर निर्भर थी। हर एक कैसेट की टेप कई बार क्विक-फिक्स से जोड़ी जा चुकी थी। रुमाल से टेप रिकॉर्डर के हेड को साफ़ करना भी दिनचर्या में शुमार हो गया था। किराए पर व्हीसीडी और बाद में व्हीसीआर लाए जाने तक यह सिलसिला ज़ोर-शोर से चला। जिस पर रंगीन टीव्ही और डिस्क ने कुछ हद तक ब्रेक लगाया। रही-सही कसर सीडी और वहीसीडी प्लेयर की आमद ने पूरी कर दी। जो अपेक्षाकृत सस्ते और सुगम थे। यह और बात है कि इससे पहले दर्ज़न भर से ज़्यादा टू-इन-वन और टेप रिकॉर्डर कबाड़े की शक़्ल में पापा के कमरे की टांड़ पर कब्ज़ा जमा चुके थे। पाँच सैकड़ा से अधिक कैसेट्स में हर तरह का संगीत आलों में अट चुका था। हर रोज़ एक या दो कैसेट्स भरवा कर घर लौटना पापा का शग़ल हो चुका था। पुराने ज़माने के बेहतरीन नग़मों का अच्छा-ख़ासा संग्रह घर मे हो गया था। वहीं मसाला फिल्मों के चलताऊ गीतों का भी भंडार हो गया था। रात को मनपसन्द गानों की लिस्ट बनाना और सुबह सब्ज़ी मंडी जाते समय गौरी म्यूज़िक सेंटर पर देना पापा का नियम बन गया था। भरे हुए कैसेट्स शाम को दफ़्तर से लौटते हुए लाए जाते थे। उनमें सेंटर के संचालक बब्बा भाई और मनोज सक्सेना अपने मन से भी कुछ गीत भर देते थे। बची हुई जगह में भरे गए इन गानों की वजह से अवसर हास्यास्पद सी स्थिति भी बन जाया करती थी। क़रीब चार साल तक बेनागा चले इस जुनून का सुखद अंत पूरी तरह भजनों के द्वार पर पहुंच कर हुआ। अब टू-इन-वन के दौर की विदाई हो चुकी थी और कैसेट्स प्लेयर यानि डेक आ चुके थे। जो केवल बजते थे। हर अच्छे गायक का ब्रांडेड और लोकल कलेक्शन घर की शोभा बढ़ा रहा था। कालान्तर में सीडी और डीव्हीडी के दौर ने कैसेट्स और टेप रिकॉर्डर को पूरी तरह प्रचलन से बाहर कर दिया। सन 2004 में पापा गीत-संगीत का भरपूर खज़ाना छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कह गए। इस विरासत को मंझले भाई आनंद ने उनके सामने ही संभाल लिया था। जिसे संगीत का शौक़ हम चारों बहन-भाइयों में सबसे ज़्यादा था। अब डेक की जगह मंहगे होम थिएटर, मंहगे मोबाइल, आईपॉड और लैपटॉप आदि ने ले ली है। बस उसके उपयोग का समय किसी के पास नहीं बचा है। किसी के भी पास। पुराने और कबाड़ हो चुके सभी टेप-रिकॉर्डर कबाड़ी ले जा चुका है। प्रचलन से बाहर और पूरी तरह अनुपयोगी कैसेट्स लोहे के एक संदूक में भर कर रखी जा चुकी थी। जिसे बरसों बाद इस दीवाली से पहले दिल पर पत्थर रख कर कबाड़ में बेचना पड़ा। उनमें भरे गीत, भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली पापा की धुन और परिश्रम की स्मृति के तौर पर संचित थीं। एक अरसे तक अनमोल धरोहर की तरह। इसे आप हमारी लायक़ी भी मान सकते हैं और नालायकी भी। जो धरोहर को सहेज कर हमेशा के लिए नहीं रख सके। वजह चाहे जो रही हो। ऐसे में इस संस्मरण को मानसिक क्षतिपूर्ति का एक माध्यम भी समझा जा सकता है।