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5 Dec 2022 · 6 min read

■ धर्म चिंतन / सत्यान्वेषण समय की पुकार

#सत्यान्वेषण_समय_की_पुकार
■ परम आवश्यक है अर्थ के अनर्थ का प्रतिकार
★ ताकि सत्य जाए समाज के समक्ष
【प्रणय प्रभात】
कुछ दिनों पूर्व व्यासपीठ पर आसीन एक कथावाचक धार्मिक चैनल पर प्रवचन देते हुए एक दोहे का प्रयोग बार-बार कर रहे थे- जो कुछ इस प्रकार था-
“रूठे स्वजन मनाइए,
जो रूठे सौ बार।”
कई बार प्रसारित इस दोहे को सुना। एक दिन शब्द सरोकार ने संयम छीन लिया। मुझे व्हाट्सअप संदेश के माध्यम से उन्हें उनकी गलती और अपनी आपत्ति से अवगत कराते हुए बताना पड़ा कि इस दोहे में “स्वजन” नहीं बल्कि “सुजन” शब्द का उपयोग हुआ है। जिसका आशय “नाते-रिश्तेदार” नहीं अपितु “अच्छे लोग” हैं। अहम वश संदेश पर प्रतिक्रिया तो उक्त प्रवाचक ने नहीं दी। तथापि अगली कथा में इस भूल को सुधार अवश्य लिया। जो मेरे लिए संतोषप्रद रहा। इसी तरह एक और प्रवाचक ने पाप-पुण्य के लेखाधिकारी धर्मराज भगवान श्री चित्रगुप्त को वैश्यों का देवता बता डाला। यही नहीं, उज्जयिनी में बने उनके भव्य धाम के निर्माण का श्रेय भी वैश्य समुदाय को दे दिया। यह जानकारी भी पूरी तरह आपत्तिजनक थी। मुझे एक चित्रवंशी के नाते उन्हें पत्र लिखकर लेखनी और बौद्धिक संपदा के धनी माने जाने वाले “कायस्थ समाज’ के अस्तित्व से परिचित कराना पड़ा। अगली कथा को सुन कर पता चला कि गुरु जी महाराज को एक प्रबुद्ध समाज व उसके आराध्य के विषय मे अपने अधूरे ज्ञान का बोध हो गया है।
ध्यान देंगे तो पाएंगे कि ऐसे तमाम उदाहरण प्रतिदिन हमारे सामने आते हैं। जब हम अर्थ का अनर्थ या भाव का विषयांतर होते देखते हैं और मूक-बधिर हो कर बैठ जाते हैं। संभवतः यही कारण है कि शब्द, अर्थ व तथ्य का मखौल उड़ाना एक अधिकार बन गया है। सोशल मीडिया के कुछ चर्चित आभासी मंचों का भी हाल लगभग ऐसा ही है। जहां खरपतवार की तरह थोक में पैदा हुए ज्ञानीजन बेनागा मर्यादाओं का लंघन धड़ल्ले से कर रहे हैं। फेसबुक, व्हाट्सअप जैसे प्लेटफॉर्म पर मनगढ़ंत प्रसंगों व दृष्टांतों की बाढ़ सी आई हुई है। जो सत्य के विपरीत मिथ्या प्रचार सिद्ध हो रही है। परिणामस्वरूप नास्तिकों, वाम-मार्गियों, विधर्मियों सहित कथित तर्क-शास्त्रियों को कुतर्क ब उपहास का आधार मिल रहा है। जो धर्म, आध्यात्म व संस्कृति के साथ खिलवाड़ ही नहीं एक तरह का छद्म-युद्ध ही है। शाब्दिक संक्रमण के इस दौर में तार्किक और वैचारिक प्रतिकार आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। जो मूल पर आघात के विरुद्ध प्रबल कुठाराघात साबित हो सके। इसी मंतव्य के साथ आज अपने कुछ कटु अनुभवों और ज्वलंत विचारों को विनम्रतापूर्वक आपके समक्ष रखने का प्रयास कर रहा हूँ।
बहुत दिनों पहले एक वीडियो व्हाट्सअप पर कई समूहों में प्रसारित हुआ। इसमें एक पीत वस्त्रधारी युवा ने कविवर रहीम के एक कालजयी दोहे का कबाड़ा करते हुए अपनी अज्ञानता को स्वयं साबित किया। दोहा महाकवि रहीम की दानशीलता व संकोची प्रबृत्ति को लेकर था। जिसमे वे प्रभुसत्ता की महत्ता को उजागर करते हुए ख़ुद को एक माध्यम भर सिद्ध करते हैं। संवाद शैली में रचित यह दोहा सबका सुना या पढा हुआ है। जो इस प्रकार है-
“देन हार कोऊ और है, जो भेजत दिन-रेन।
लोग भरम हम पे करें ता से नीचे नैन।।”
वीडियो में संत वेषधारी नौजवान ने उक्त प्रसंग को महाराजा हरिश्चंद्र और रहीम दास के बीच का संवाद बता दिया। जो अपने आप मे कम हास्यास्पद नहीं है। अगले को शायद यह भी पता नहीं था कि उक्त दोनों दानवीरों की उम्र के बीच हज़ारों वर्षों का अंतर था। बेचारे को पता ही नहीं था कि प्रभु श्रीराम के तमाम पूर्वजों के भी पूर्वज महाराज हरिश्चन्द्र का सम्बंध सतयुग से है। जबकि कवि रहीम युगों बाद कलियुग में पैदा हुए। तथाकथित धर्मप्रेमियों ने लाखों की संख्या में इस वीडियो को बड़े पैमाने पर प्रसारित कर धर्मरूपी तुलसी के चक्कर मे पाखण्ड का बबूल सींच डाला। क्या इस तरह अल्पज्ञानी होकर अल्पज्ञान का प्रचार-प्रसार आस्था है? कभी समय हो तो बैठ कर सोचिएगा। वरना धर्म पर आघात के अवसर अधर्मियों को मिलते रहेंगे। जिसके अपराधी तथाकथित धर्मप्रेमी स्वयं होंगे।
निराधार और काल्पनिक तथ्य किस तरह धर्म और संस्कृति के छतनार वृक्ष की जड़ों में छाछ (मठा) डालने का काम करते हैं, इसका एक नमूना चंद दिनों पहले मिला। जब हिजाब विवाद के संदर्भ में मौलाना सैयद या सज्जाद नोमानी नामक एक इस्लामिक विद्वान ने एक मजहबी मंच पर बेमानी सी कहानी पेश कर डाली। किष्किंधा कांड के कथा क्रम के अनुसार माता सीता के आभूषणों की पहचान में लक्ष्मण जी द्वारा व्यक्त असमर्थता को मौलाना साहब ने क़ौमी भीड़ की तालियों के लिए मनमाना मोड़ दे डाला। उन्होंने मां सीता के मनगढ़ंत घूंघट को इसकी वजह बताते हुए यह साबित करने का कुत्सित प्रयास किया कि हिजाब का वास्ता त्रेता युग से भी है। विडम्बना की बात रही कि किसी भी धर्म ध्वजधारी ने इस बेतुके कथन का खंडन करने का साहस नहीं दिखाया। काश, कोई राजा जनक की सभा मे एक अनुचित टिप्पणी के विरुद्ध खड़े हुए शेषावतार लक्ष्मण सा प्रतिरोध करने का साहस दिखा पाता। काश, कोई मौलाना के झूठ का खुलासा करते हुए को यह सच बता पाता कि मां सीता के मुख और लक्षण क नेत्रों के बीच किसी कपड़े का नहीं मर्यादा का पर्दा था।
सम्पूर्ण रामायण में एक भी प्रसंग ऐसा नहीं, जो त्रेता युग में पर्दा प्रथा के अस्तित्व को प्रमाणित करता हो। बाल कांड के अति मनोरम पुष्प-वाटिका प्रसंग के अंतर्गत मां जानकी के कथा में मंगल पदार्पण से लेकर भूमि में समा जाने तक कोई पर्दा या घूंघट था तो वो मात्र आंखों की लाज और मर्यादाओं का था। जिसका प्रमाण सुंदर कांड में भी तीन बार मिलता है। अशोक वाटिका में वृक्ष के नीचे विराजमान सीता की छवि को वर्णित करती है पहली चौपाई-
“कृस तन सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदय रघुपति गुण श्रेनी।।”
चौपाई में जटा रूपी वेणी का उल्लेख किसी तरह के घूंघट के दावे को सिरे से झूठ साबित करती है। इसी क्रम में दूसरी चौपाई भी मां सीता के मुख पर आवरण न होने का सच साबित करती है-
“तृण धरि ओट कहति वैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही।।”
इस चौपाई के अनुसार माता सीता यदि घूंघट में बैठी होतीं तो उन्हें रावण के सम्मुख एक तिनके को पर्दा बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी तरह से लंका दहन के बाद जब अशोक वाटिका लौटे हनुमान जी ने मां सीता से कोई चिह्न देने का आग्रह किया तो उन्होंने अपनी चूड़ामणि उतार कर उन्हें दी। मानस जी मे यह चौपाई कुछ इस तरह से उल्लेखित है-
“चूड़ामणि उतार तब दयऊ।
हर्ष समेत पवनसुत लयऊ।।
बताना प्रासंगिक होगा कि “चूड़ामणि” वस्तुतः जूड़े में लगाया जाने वाला आभूषण होता है। स्पष्ट है कि जहां यह आभूषण था, वहां भी कोई आवरण या वस्त्र नहीं रहा होगा। इस तरह का तर्क स्वाध्याय व चिंतन-मनन के बिना संभव नहीं और इस तरह के तर्कपूर्ण प्रतिकार के लिए जागृत व जानकार होना समय की प्रबल मांग है।
अभिप्राय बस इतना है कि अब समय मिथक रखने नहीं तोड़ने का है। यहां मन्तव्य किसी की महिमा के खंडन या छवि पर आघात का नहीं। मन्तव्य केवल उस आघात पर कुठाराघात की चेतना के जागरण का है, जो हमारे मूल पर होता आ रहा है। आवश्यक नहीं कि भव्य मंच और दिव्य आसन पर विराजित प्रत्येक प्रवाचक के श्रीमुख से केवल और केवल “ब्रह्मवाक्य’ ही प्रस्फुटित होते हों। प्रायः बड़बोलेपन, भावावेश या अपार भीड़ के बीच अति-उत्साह में तमाम “भ्रम-वाक्यों” का प्रस्फुटन भी सहज संभव है। चिंगारी जैसे इस तरह के वाक्यों व तथ्यों को दावानल बनने से रोकना प्रत्येक धर्म-उपासक व शब्दसाधक का परम कर्तव्य है। प्रायः आस्था या संकोच हमे ज्ञान के प्रांगण में मूढ़ बनने पर बाध्य करता है। इसी के कारण लोग धर्म के नाम पर अधर्म का बीजारोपण करते हुए अर्थ के अनर्थ की उक्ति को बरसों से चरितार्थ करते आ रहे हैं। दुर्भाग्य की बात है कि यह प्रवृत्ति निरंतर बढ़ता जा रहा है। जो किसी भी दृष्टिकोण से कतई उचित नहीं है। सब स्मरण में रखें कि ऐसे में सत्यान्वेषण व सत्योदघाटन आपका हमारा सभी का साझा दायित्व है। ताकि साहित्य व सृजन का संदेश सही आशय के साथ समाज तक जाए।
■ प्रणय प्रभात ■
श्योपुर (मप्र)
8959493240

Language: Hindi
1 Like · 332 Views
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