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31 Jan 2023 · 4 min read

■ चुनावी साल के अहम सवाल। पूछे तरुणाई!!

#सिस्टम_वीक : #पर्चे_लीक
■ षड्यंत्र का मक़सद “टाइम-पास” या फिर “वसूली”…?
★ समूचा तंत्र मौन : जवाब देगा कौन…?
★ अब सवाल उठाए युवा शक्ति
【प्रणय प्रभात】
मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले के साथ शुरू हुआ बेरोजगारों के भविष्य के साथ खिलवाड़ अब देशव्यापी परिपाटी बन चुका है। करोड़ों की भीड़ के लिए मुश्किल से सैकड़ों रिक्तियों का आना और बिना भर्ती के रद्द हो जाना आम बात बन गया है। देश का कोई बड़ा राज्य इससे अछूता नहीं बचा है। फिर चाहे वो बुलडोज़र बाबा का यूपी हो या प्रधान सेवक जी का गुजरात। सुशासन बाबू का बिहार हो या मामा का मध्यप्रदेश। दीदी का बंगाल और जादूगर का राजस्थान। सरकारें बेशक़ अलग दलों की हों मगर हालात एक से हैं। हर तरह की भर्ती से एन पहले पर्चे का लीक हो जाना एक खेल बन गया है। जिसे लेकर न कोई सरकार गंभीर है और ना ही वो संवैधानिक संस्थान, जो फ़ालतू के मसलों पर फटे में टांग देने के लिए चर्चित हैं। मगर देश के भविष्य के साथ जारी षड्यंत्र पर मुंह खोलने को राज़ी नहीं। ऐसे माहौल में एक बड़ा संदेह यह पैदा होता है कि क्या “पेपर लीक” और ”सिस्टम वीक” के बीच कोई मिलीभगत है?
आज रोज़गार की स्थिति और अवसरों की न्यूनता के बीच इस तरह के खेल को हल्के में नहीं लिया जा सकता। ऐसा लगता है मानो सरकारी तंत्र बेरोजगारों के ख़िलाफ़ जारी इस षड्यंत्र में ख़ुद शामिल है। जिसकी मंशा परीक्षा शुल्क के नाम पर करोड़ों की वसूली के सिवाय कुछ नहीं है। प्रायः ऐसा लगता है मानो भर्ती सिर्फ़ दिखावे के लिए निकाली जाती है। जिसे अमली जामा पहनाने से पहले “पेपर लीक” के नाम पर निरस्त कर दिया जाता है। इसके पीछे की मंशा केवल समय बिताना और कार्यकाल पूरा करना भी हो सकता है। ताकि इन्हीं भर्तियों के लिए बेबस युवा पीढ़ी सरकार को एक बार फिर मौका देने बाध्य हो और नतीजा वही “ढाक के तीन पात” निकले। इस आशंका के पीछे का आधार 2014 के बाद के आंकड़े हैं, जो बिना बोले न केवल बोलते हैं बल्कि सिस्टम और सियासत की साझी मंशा की पोल भी खोलते हैं।
मोटे-मोटे आंकड़े पर नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि बीते 8 सालों में 22 करोड़ से अधिक बेरोज़गारों से परीक्षा शुल्क के नाम पर अरबों की वसूली की गई। जबकि नौकरी मात्र 6 से 7 लाख युवाओं को ही दी गई। अब जबकि निजी संस्थानों में छंटनी के नाम पर बारोज़गारों को बेरोज़गार बनाने का सिलसिला तेज़ होता जा रहा है, सरकारें “आजीविका और रोज़गार” को एक बता कर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही हैं। जिसे सियासी बेरहमी और सत्ता के कर्णधारों की धूर्तता के अलावा कोई नाम नहीं दिया जा सकता। रोज़ विकास और जनहित के दावे करने वालों से 2023 और 2024 के चुनावों में सवाल क्यों नहीं पूछे जाएं, इसे लेकर युवाओं को समय रहते एकमत होकर विमर्श की ज़रूरत है। यदि वे अपने सपनों व दायित्वों को लेकर वाकई संजीदा हैं।
जो बिना लामबंद और मुखर हुए केवल मताधिकार और जय-जयकार से संतुष्ट हैं, वो तैयार रहें रोने-झींकने की एक और पंचवर्षीय योजना के लिए। जिसके अंतर्गत कम से उससे दो गुने युवा अधेड़ हो जाने तय हैं, जितनों को हर साल नौकरी देने के झूठे वादे दो पारियों में पूरी सफलता के साथ किए जा चुके हैं। जिनकी अगले साल हैट्रिक लगनी भी पूरी तरह तय है। नहीं भूला जाए कि एक भर्ती का रद्द होना उन लाखों उम्मीदों का ख़त्म होना है जो उम्र के लिहाज से पात्रता की अंतिम कगार पर होती हैं। सरकारी नौकरी की अधिकतम आयु-सीमा पार करने वालों के पास “तम” के अलावा कुछ शेष नहीं बचता। नहीं भूला जाना चाहिए कि पर्चा निरस्त होने के बाद क़त्ल अभिभावकों के अरमानों का होता है। ख़ास कर उनके जो ख़ून-पसीना बहा कर और तन-पेट काट कर एक परीक्षा के नाम पर हर बार कम से कम 2 से 4 हज़ार रुपए तक खर्च करते हैं और आख़िरकार ख़ुद भी खर्च हो जाते हैं।
आख़िर क्यों नहीं उठने चाहिए यह सवाल कि सिस्टम मेंलीकेज़ क्यों? जहां से हरेक पर्चा आसानी से लीक हो जाता है। क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि सरकारों ने कितने जयचंद और ज़ाफ़र पकड़े और उन्हें कठोरतम सज़ा दी? सरकारें क्यों न बताएं कि एक बार की चूक के बाद अगली चूकों का सिलसिला किसकी नाकामी है? सिस्टम को क्यों नहीं बताना चाहिए कि उसने इस खिलवाड़ पर स्थायी रोक के लिए क्या क़दम उठाए या कौन से नए प्रावधान किए? दिग्भ्रमित और हताश पीढ़ी को सामूहिक स्वरों में कुछ मांगें पुरज़ोर तरीके से उठानी ही होंगी। जिसमें भर्ती या रैली रद्द होने की सूरत में परीक्षा शुल्क सहित आवागमन, निवास और भोजन पर खर्च हुई पाई-पाई की भरपाई के अलावा सम्बद्ध अभ्यर्थियों को अगले अवसर के लिए आयु-सीमा में छूट देने जैसी मांगें प्राथमिक हों। जिस दिन इन मांगों का दवाब बना कर सियासत को घुटनों पर ला दिया जाएगा, उसी दिन पर्चा लीक होने के उस गेम का ख़ात्मा हो जाएगा, जो पूरी तरह सुनियोजित साज़िश सा दिखाई देता है। यदि सत्ता के सेमी-फाइनल और फाइनल में युवा-शक्ति दीगर मुद्दों व झांसों में उलझ कर बेपरवाही का परिचय देती है तो उसे यह भी मानना होगा कि उसकी अपनी बर्बादी और दयनीयता की ज़िम्मेदार कोई और नहीं, वो ख़ुद ही है। जिसके नसीब में झूठे जुमलों और थोथी घोषणाओं से अधिक कुछ है तो वह है जालसाज़ी, दमन और बेरहम वर्दी की बेतहाशा लाठियां। आगे फ़ैसला उनका अपना, जिनका भविष्य इसी तरह सूली पर लटकना तय हो चुका है।
【सम्पादक】
न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)

#नोट-
इस आलेख व आह्वान का उन लक्ष्यहीन अंधभक्तों से कोई लेना-देना नहीं, जो केवल फर्श बिछाने, झंडे लहराने और नारे लगाने के लिए पैदा हुए हैं।

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