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2 Feb 2023 · 4 min read

■ आलेख / सामयिक चिंतन

#बड़ा_सवाल
■ सियासत का “सॉफ्ट टार्गेट” सनातन ही क्यों…..?
★ बेशर्म खेल के पीछे की वजह बस “ध्रुवीकरण”
★ सियासत, मीडिया व बाहरी शक्तियों का त्रिकोण
【प्रणय प्रभात】
किसी की बात को बिना उसके बोले जान लेना चमत्कार है या नहीं? किसी बात का तत्कालीन परिस्थियों के संदर्भ में क्या आशय है? इस तरह के सवालों को लेकर बिना जानकारी, बिना अध्ययन विवाद खड़ा करना अब एक खेल सा बन गया है। इन दिनों देश भर में दो मुद्दों पर निरर्थक विवाद छिड़ा हुआ है। एक तरफ बागेश्वर धाम के पीठाधीश के कथित चमत्कार का मसला है। दूसरी तरफ समरसता और आदर्श जीवन के परिचायक ग्रंथ श्री रामचरित मानस की दो-चार चौपाइयों का मामला। दोनों के पक्ष में खड़े आस्थावानों की संख्या लाखों से करोड़ों की ओर बढ़ रही है। वहीं इनके विरोधी भी बेनागा सामने आ रहे हैं। धर्म और विज्ञान तथा धर्म और अधर्म के बीच की इस भिड़ंत का दुःखद पहलू मात्र सनातन धर्म परम्परा पर हमला है। जिसके पीछे कुत्सित राजनीति पूरा दम-खम दिखा रही है।
विडम्बना की बात यह है कि इन मुद्दों ने जहां सनातनधर्मियों के बीच विभाजन तक के हालात बना दिए हैं। वहीं दूसरी ओर नास्तिकों और विधर्मियों को सत्य-सनातनी धर्म-संस्कृति के उपहास और अकारण विरोध का अवसर दे दिया है। जबकि सच्चाई यह है कि बागेश्वर वाले बाबा की तरह के कारनामे करने वालों की देश में सदियों से भरमार रही है। जिनके पोस्टर सार्वजनिक स्थलों तक पर चस्पा दिखाई देते रहे हैं। जिसमे किसी भी धर्म के जानकार व तांत्रिक पीछे नहीं हैं। इसी तरह सकल समाज को दिशा और दृष्टि देने वाले एक महाग्रंथ को मनमाने पूर्वाग्रह के साथ पढा जाना और भी अधिक शर्मनाक है। वो भी भाषा और बोलियों की शब्द परम्परा और विविधता से अवगत हुए बिना। जो मात्र उन्माद व आक्रमण है।
सरकार, मीडिया, न्यायालय या तथाकथित बुद्धिजीवियों को कोई फ़र्क़ बस इसलिए नहीं पड़ता कि मामले अहिंसक व सहिष्णु समुदाय की आस्था से जुड़े हैं। जिनसे खिलवाड़ की छूट मानो संविधान उन्हें दे चुका है। लिहाजा उस पर आक्रमण का साहस हर कोई शिखंडी सूरमा बन कर दिखा रहा है। इनमें तमाम लोग ईर्ष्या और द्वेष से भरे हुए हैं। जबकि बाक़ी क्षुद्र राजनीति से प्रेरित व प्रभावित होकर इन मसलों को लपकने और उछालने में भिड़े हुए हैं। इनमें सबसे बड़ी तादाद उन जले-भुने लोगों की है, जिन्हें किसी का देवदूत बनकर सुर्खियों में आना या किसी एक ग्रंथ का घर-घर पूजा जाना नहीं सुहा रहा है। वहीं दूसरे क्रम पर बड़ी संख्या उनकी है जो उक्त मुद्दों को चुनावी साल में धार्मिक व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नज़रिए से भुनाने में जुटे हुए हैं और आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-वितर्क का खेल धड़ल्ले से खेल रहे हैं। इस आंच को हवा दे कर भड़काने का काम मुद्दाविहीन और निरंकुश इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पूरी शिद्दत से कर रहा है। जिसे किसी धर्म या जन भावनाओं से ज़्यादा चिंता अपनी टीआरपी और झूठी रैंकिंग की है।
देश, धर्म और मानवता के साथ खिलवाड़ से जुड़े ज्वलंत मुद्दों को सस्ते में खरीद कर करोड़ों में बेचने वाले मीडिया की मनमानी और बेशर्मी मुद्दे को दावानल बनाने में जुटी हुई है। इस माहौल में सबसे ज़्यादा तक़लीफ़ उस बहुसंख्यक आस्थावान समुदाय को भोगनी पड़ रही है, जिनकी आस्था को बड़ा ख़तरा विधर्मियों से कहीं अधिक अपने बीच पलते, पनपते अधर्मियों से है। जिनके लिए राजनीति स्वधर्म से कहीं ऊपर है। शर्मनाक बात यह है कि इन बखेड़ेबाज़ों मे तमाम छोटे-बड़े धर्मगुरु ही नहीं बड़े धर्माचार्य भी शामिल हैं। जो एक धर्म के बजाय किसी दल विशेष के ब्रांड एम्बेसडर बने हुए हैं।
परालौकिक संसार और उसके रहस्यों सहित प्राचीन ग्रंथों के शाश्वत संदेशों को निज स्वार्थवश नकारने वाले विज्ञान और नास्तिक वर्ग के विरोधी स्वर उनकी स्वाभाविक व नीतिगत मजबूरी समझे जा सकते हैं। तथापि समस्या की बड़ी वजह वे धर्मगुरु और प्रबुद्ध-जन हैं, जो तंत्र-साधना व सिद्धियों सहित कालजयी पंक्तियों के पीछे का सच व मर्म जानने के बाद भी मामले को तूल दे रहे हैं। इन सबके पीछे सेवा और समर्पण के नाम पर धर्मांतरण का खेल दशकों से खेल रही विदेशी शक्तियों की दौलत भी बड़ी वजह हो सकती है। जिसके लिए अपना दीन-ईमान बेचने पर आमादा लोगों की एक संगठित जमात जेबी संस्थाओं के रूप में अरसे से सक्रिय बनी हुई है और जिनके आगे देश का वो तंत्र और क़ानून बौना साबित हो रहा है। जिसकी ताक़त केवल सनातन धर्म-संस्कृति पर ही हावी होती है। सियासी खिलाड़ी हों या वाममार्गी लेखक और विचारक। बॉलीवुड की कथित प्रगतिशील हस्तियां हों या टुकड़े-टुकड़े गैंग के गुर्गे और बिकाऊ मीडिया-हाउस के मुर्गे। सब के साझा सुर आपत्तिजनक होने के बाद भी तार्किक ठहराए जा रहे हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य शायद ही कोई और हो।
सारा मकड़जाल सिर्फ़ सनातनी सभ्यता के विरोध में बुना जा रहा है। इन सब पर नियंत्रण के लिए ज़िम्मेदार तंत्र की चुप्पी अपने पक्ष में बनने वाले ध्रुवीकरण की देन मानी जा सकती है। जिसके बलबूते इस साल सत्ता के सेमी-फाइनल के बाद अगले साल फाइनल खेला जाना है। कुल मिला कर न कोई दूध का धुला है और न ही आस्था से खिलवाड़ का प्रखर व मुखर विरोधी। ऐसे में आस्था का बुरी तरह से पिसना स्वाभाविक है, जो लगातार पिस भी रही है।
चुनावी साल के साथ बेहूदगी के इस घटिया खेल का अंजाम किस मुकाम पर पहुंच कर होता है, वक़्त बताएगा। फ़िलहाल यह तय माना जाना चाहिए कि सियासी हमाम के सभी नंगे कम से कम डेढ़ साल बेशर्मी का यह दंगल हर हाल में जारी रखेंगे। जिनके निशाने पर सबसे आगे सनातन और सनातनी ही होंगे। जो सबके लिए “सॉफ्ट टारगेट” माने जाते रहे हैं। वो भी दुनिया मे इकलौते अपने ही उस देश मे, जो तमाम धर्मों, मतों और पंथों का गुलदस्ता रहा है। संक्रमण के कुचक्र की चपेट में आए साल को अमृत-काल माना जाए या विष-वमन और विष-पान काल? आप स्वयं तय करें, क्योंकि रोटियां किसी की भी सिकें, आग की जद में सब हैं। उसी आग की जद में जो हवा के कंधों पर सवारी करती है और हवा के साथ ही अपना रुख़ भी बदलती है।
【संपादक】
★न्यूज़ & व्यूज़★
श्योपुर (मध्यप्रदेश)

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