■ आलेख / लोकतंत्र का तक़ाज़ा
#बेमिसाल_हो_नया_साल
■ अब नेता नहीं जनता तय करे मुद्दे
★ ताकि सच मे सशक्त हो सके गणराज्य का जनमत
【प्रणय प्रभात】
लोकतंत्र का मतलब यदि जनता के लिए जनता पर जनता का शासन है, तो फिर चुनावी मुद्दे तय करने का अधिकार जनता क्यों न करे? आज का यह सवाल आने वाले कल में जनता व जनमत के सम्मान की सोच से जुड़ा हुआ है। वही जनता जो हर चुनाव से महीने दो महीने पहले जनार्दन बनती है। भाग्य-विधाता कहलाती है और छली जाती है। मुद्दों के नाम पर उन झूठे दावों और बोगस दावों के बलबूते, जो नेता और दल तय करते है। अब जबकि 75 साल पुरानी स्वाधीनता वानप्रस्थ से सन्यास वाले चरण में पदार्पण कर चुकी है, ज़रूरी हो गया है कि मतदाता भी परिपक्व हों। ताकि उन्हें राजनैतिक झांसों से स्थायी मुक्ति मिल सके।
महज चंद दिनों बाद शुरू होने वाला नया साल जन-चेतना जागरण के नाम होना चाहिए। वही साल जो पूरी तरह चुनावों कवायदों के नाम रहना है। सारे दल आने वाले कल के लिए सियासी छल के नए नुस्खे तलाशने में जुट चुके हैं। अनुत्पादक योजनाओं के अम्बार एक बार फिर चुनावी मैदान में लगने इस बार भी तय हैं। जिनके नीचे असली मुद्दों को दबाने का प्रयास होगा। जनहित के नाम पर घिसी-पिटी ढपोरशंखी घोषणाओं की गूंज सुनाई देने लगी है। जिनके पीछे की मंशा जनता की आवाज़ को दबाने भर की होगी। इस सच को जानते हुए अंजान बनने का सीधा मतलब होगा अगले 5 साल के लिए ठगा जाना।
साल-दर-साल मिथ्या वादों की छुरी से हलाल होने वाले मतदाताओं को मलाल से बचने के लिए अपने मुद्दे ख़ुद तय करने होंगे। ऐसे मुद्दे जो समस्याओं का स्थायी हल साबित हों। मुद्दे ऐसे जिनके परिणाम न सिर्फ पूर्णकालिक बल्कि दीर्घकालिक भी हों। कथित उपभोक्तावाद की आड़ में हर तरहः की लूट की छूट का विरोध जनता का पहला मुद्दा होना चाहिए। जो घोर मंहगाई, अवैध भंडारण, नक़्क़ाली, मुनाफाखोरी और आर्थिक ठगी से निजात दिला सके। सुरक्षित कल के लिए युवाओं को स्थायी व सुनिश्चित रोजगार के लिए रिक्त पदों पर सीधी भर्ती की आवाज़ उठानी होगी। ताकि आजीविका विकास व आउट-सोर्सिंग के नाम पर जारी भाई-भतीजावाद व भ्रष्टाचार खत्म हो सके। छोटे-बड़े कर्मचारियों को पुरानी पेंशन योजना की बहाली के साथ लंबित पढ़े स्वत्वों की अदायगी, क्रमोन्नति-पदोन्नति जैसी मांगों को बल देना होगा। संविदा व तदर्थ कर्मियों को नियमितीकरण के लिए पूरी दमखम के साथ हुंकार भरनी पड़ेगी। मंझौले कारोबारियों और आयकर दाताओं को टेक्स के नाम पर लूट और मुफ्तखोरी के बढ़ावे पर छूट के विरोध में मुखर हों। महिलाओं को छोटी-मोटी व सामयिक सौगात के नाम पर मिलने वाली खैरात को नकारने का साहस संजोना पड़ेगा। अपने उस सम्मान की रक्षा से जुड़े कड़े प्रावधानों की मांग बुलंद करनी होगी, जिसकी कीमत राजनीति वारदात के बाद मुआवजे में आंकती है। सीमांत व लघु किसानों, श्रमजीवियों और मैदानी कामगारों को संगठित होकर अच्छे कल नहीं अच्छे आज के लिए लड़ना होगा। तब कहीं जाकर वे विकास की मुख्य धारा का हिस्सा बन पाएंगे।
विशाल धन;भंडार रखने वाले धर्मस्थलों के विकास और विस्तार, गगन चूमती मूर्तियों की स्थापना, योजनाओं व कस्बों-शहरों के नामों में बदलाव, बच्चों को साल में एक बार मिलने वाले उपहार, वाह-वाही और थोथी लोकप्रियता के लिए संचालित रेवड़ी-कल्चर की प्रतिनिधि योजनाओं से एक आम मतदाता को क्या लाभ है, इस पर विवेकपूर्ण विचार हर मतदाता को करना होगा। बिकाऊ मीडिया के वितंडावाद से किनारा करते हुए कागज़ी व ज़ुबानी आंकड़ों की नुमाइशों का तमाशबीन बनने से भी आम जनता को परहेज़ करना पड़ेगा। जातिवाद, क्षेत्रवाद सहित वंशवाद की अमरबेल को सींचने से दूरी बनाने होगी। झूठी नूराकुश्ती कर अंदरूनी गलबहियों में लगे पुराने और सुविधाभोगी चेहरों को खारिज़ पड़ना होगा। खास कर उन चेहरों को जो ख़ुद संघर्ष में समर्थ न होकर अपने राजनैतिक आकाओं के रहमो-करम पर निर्भर हैं और क्षेत्र में जनता के नुमाइंदे के बजाय नेताओं के ब्रांड-एम्बेसडर बने हुए हैं।
आम जनता को दलों व क्षत्रपों से बर्फ में लगे उन पुराने वादों और घोषणाओं के बारे में खुलकर पूछना पड़ेगा, जो केवल चुनावी साल में बोतल में बन्द जिन्न की तरहः बाहर आते हैं। बुनियादी सुविधाओं सहित मूलभूत अधिकारों को लेकर जागरूक होकर हरेक मतदाता को अपने उस मत का मोल समझना होगा, जो हर बार औने-पौने में बिकता आया है। गुजरात की जनता सा स्वाभिमान और हिमाचल की जनता सी समझ दिखाने का संकल्प भी जनता जो लेना पड़ेगा। ताकि चालबाजों की खोटी चवन्नियां प्रचलन में न आएं। साथ ही सत्ता के मद में आम मतदाता के कद की अनदेखी करने वालों के मुगालते दूर हो सकें। ऐसा नहीं होने की सूरत में सामने आने वाले नतीजे ना तो बेहतर होंगे और ना ही जन-हितैषी।
जहां तक दलों व उनके दिग्गजों का सवाल है, उनकी भूमिका आगे भी मात्र “सपनो के सौदागर” व “बाज़ीगर” जैसी रहनी है। कथित दूरगामी परिणामों के नाम पर छलने और भरमाने के प्रयास हमेशा की तरहः माहौल बनाने के काम आएंगे। अतीत के गौरव और अच्छे भविष्य के नाम पर जनभावनाओं को भुनाने का भरसक प्रयास कुरील सियासत हमेशा से करती आई है। इस बार भी जी-जान से करेगी। वावजूद इसके आम जनता को यह संकेत राजनेताओं को देना होगा कि फुटबॉल के मैच बैडमिंटन के कोर्ट पर नहीं खेल जा सकते। मतदाताओं को सुनिश्चित करना होगा कि लोकसभा चुनाव से जुड़े मुद्दे, दावे, वादे और आंकड़े निकाय और पंचायत चुनाव की तरहः विधानसभा चुनाव में हावी और प्रभावी नहीं हो सकें। मतदाताओं को अपनी परिपक्वता व जागरुक्तक का खुला प्रमाण देने के लिए 2023 के चुनावों को सही मायने में आम चुनाबों का सेमी-फाइनल साबित कर के दिखाना होगा। ताकि जनमत की शक्ति का स्पष्ट आभास उन सभी सियासी ताकतों को हो सके, जो रियासत और सिंहस्सन को अपनी जागीर मान कर चल रही हैं और जनादेश का अपमान हर-संभव तरीके से करती आ रही हैं। जिनमे क्रय-शक्ति व दमन के बलबूते जोड़-जुगाड़ से सत्ता में वापसी और जनता द्वारा नकारे गए चेहरों को बेशर्मी से नवाजे जाने जैसे प्रयास मिसाल बनकर सामने आते रहे हैं। तीन साल बाद संप्रभुता का “अमृत उत्सव” मनाने वाले गणराज्य में जनमत सशक्त साबित हो, यह समय की मांग ही नहीं लोकतंत्र का तक़ाज़ा भी है।