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4 Dec 2022 · 3 min read

■ आलेख / दारुण विडम्बना

■ बदलते मायने और हमारे अपराध
【प्रणय प्रभात】
महाकवि तुलसीदास ने श्री रामचरित मानस जी के किष्किंधा कांड के समापन से पूर्व शरद ऋतु के सौंदर्य का वर्णन किया। जिसे मानवीय धृष्टताओं से कुपित प्रकृति ने उलट कर रख दिया। लगता है कि आज गोस्वामी जी होते तो शरद वर्णम की पहली चौपाई “वर्षा विगत शरद ऋतु आई” की जगह “वर्षा रहत शरद ऋतु आई’ होती। यही नहीं, अगली कुछ चौपाइयों के भी शब्दार्थ बदल जाते। तब हम शरद की मादकता भरी सुरम्यता नहीं उसके विकृत स्वरूप से साक्षात कर रहे होते। रचना के बाद से हरेक युग मे प्रासंगिक मानस के बदलते मायने एक ईश्वरीय चेतावनी है। चिर वरदायिनी प्रकृति का चीर-हरण करने वाली दो तिहाई से अधिक आबादी इस अक्षम अपराध में लिप्त है। ऐसे में हम अनादिकाल से सहोष्णु और उदार प्रकृति से रियायत या मोहलत की हास्यास्पद आशा आखिर किस मुंह से कर सकते हैं। सुनने व पढ़ने में बहुतों का क्रोध उमड़ेगा। लेखक के प्रति अपशब्द भी निकल कर ज़ोर-शोर से बरसेंगे। देश के अधिकांश हिस्सों में तबाही की गाथा लिखने वाली अनचाही बारिश की तरह। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति होने का सदियों पुराना बुखार हमारे मस्तिष्क को जकड़े हुए है। ऐसे में हम रत्नगर्भा धरती, अमृतमयी जल संरचनाओं व प्रकृति के शील से सतत खिलवाड़ की अधमता को क्यों स्वीकारने लगे? हमने शान से स्वयं को “धरतीपुत्र” का नाम तो दे दिया पर पुत्र की मर्यादाएं ताक पर रख दी। हमे याद रखना चाहिए था कि यही भूल भाभी रूपी पांचाली के साथ न हुई होती, तो “महाभारत” अस्तित्व में ही नहों होता और जीवन “रामायण” सा रहता। बल और गुणों के मामले में कौरव कहाँ पांडवों से कम थे? नीति और नीयत से सब कुछ छीन लिया उनका। काश हम धरतीपुत्रों ने धरती माँ के प्रति संवेदनशील होकर अनियोजित विकास व अनाधिकृत चेष्टाओं के विरुद्ध उठ खड़े होने का साहस दिखाया होता। हम तो खुद तीन टांग की इस अंधी दौड़ का हिस्सा बन गए। ऐसा नहीं है कि प्रकृति ने अपना रौद्र रूप अकस्मात दिखाया हो। उसने “महागौरी” से “कालरात्रि” बनने तक के इस उपक्रम में सदियां खपाईं। इस दौरान तमाम सारे संकेत हमे मिलते रहे। जिनकी हम उपेक्षा करते रहे। लगता है इनमें सबसे बड़ा संकेत उस दिन मिला, जिस दिन कथित “दाता” को “याचक” बनने पर विवश होना पड़ा। जो अब एक परिपाटी बन गया है। पूराने दौर की तुलना में तमाम संसाधन व भौतिक समृद्धि के बाद भी हम दयनीय हैं। “ऊंट के मुंह मे जीरे जैसी मदद” अब नाक का सवाल हो चुकी है। कमज़ोर पगडंडियों का हक़ पक्की सड़के हड़प रही हैं। ऐसे में यह तो होना ही है। जो हो भी रहा है। “कालरात्रि” को “सिद्धिदात्री” बनाना आज भी संभव है। बशर्ते हम एक बार फिर अपने पारंपरिक जीवन मूल्यों व सिद्धांतो की दिशा में उन्मुख हों। जो शायद आज हमारे बस की बात नहीं। उन्नत खेती के नाम पर प्रकृति प्रदत्त वरदानों का दुरुपयोग हमने आसुरी शक्तियों की तरह किया है। परिणाम सामने हैं, जिन्हें आगत में और भयावह होना है। कार्तिक के जिस सुखद परिवेश में आनंद की अनुभूति प्रथम दिवस से होती थी, कहीं आभासित नहीं है। अप्रत्याशित बरसात, निर्दयी हवा के थपेड़े और जानलेवा आसमानी गाज हर दिन की दारुण गाथा का अंग बन गई है। दशहरे की तरह दीपावली महापर्व के उत्सवी उल्लास पर ग्रहण के पूरे आसार हैं। ऐसे में ठाकुर जी को धवल चांदनी में विराजित कर चंद्र-दर्शन कराने की सोच बचकानी सी प्रतीत हो रही है। खुले में सात्विक और स्वादिष्ट खीर के कटोरे खाली पड़े मुंह चिढ़ा रहे हैं। मनमौजी मनों के स्वामी चंद्रदेव सघन बादलों के हाथों बंदी बन गए हैं। ऐसे में खुले में रखी जाने वाली खीर के अमृततुल्य होने की परिकल्पना खंडित सी लग रही है। सयाने खरगोश की सीख व उद्दंड हाथियों की बोध-कथा मस्तिष्क में घुमड़ रही है। हृदय से एक ही ध्वनि निकल रही है कि ईश्वर निर्मल जलाशय रूपी जीवनदायी धरती को दलदली बनाने वाले मदांध हाथियों को सद्बुद्धि दे। ताकि न प्रकृति के प्रावधान बदलें और ना ही हमारी चिरकालिक मान्यताएं।
★ प्रणय प्रभात ★

Language: Hindi
1 Like · 128 Views
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