।। अछूत ।।
तुम गंगा से पावन और मैं,
गंदे नाले का पानी कैसे।
तुम स्वच्छ श्वेत बेदाग और मैं,
मलिनता की निशानी कैसे।
कोई जात नही कोई धर्म नही,
सब कर्मो पर निर्भर करता है।
मैं दलित मूर्ख गंवार और तुम,
चतुर्वेदों के ज्ञानी कैसे।
..तुम गंगा से पावन और मैं,
गंदे नाली का पानी कैसे।
प्राप्त होते जो मुझे भी अवसर,
समान यदि भूतकाल मे।
मैला ढोने को मजबूर न होता,
तब होता न मैं इस हाल में।
पढ़ गया कोई दलित जो इतना,
तुम्हे इतनी परेशानी कैसे।
आ गया बनकर आज जो अफसर,
तो वेवजह की तुम्हे हैरानी कैसे।
..तुम गंगा से पावन और मैं,
गंदे नाली का पानी कैसे।
वाह!
मनु स्मृति के नियम क्या सारे,
सिर्फ मुझ पर ही लागू होते थे,
क्या कल्पना मात्र से ही विराट पुरुष की,
मानव सब काबू में होते थे।
फिर लूटी थी धर्म के ठेकेदारों ने,
अछूत नारी की क्यूं जवानी कैसे।
ये! स्वर्णिम तेरा इतिहास है,
और अनभिज्ञ मेरी कहानी कैसे।
@साहित्य गौरव
…तुम गंगा से पावन और मैं,
गंदे नाले का पानी कैसे।