फ़िल्म रज़िया सुल्तान (1983 ई.) के अमर गायक क़ब्बन मिर्ज़ा
बचपन में जब हम छाया गीत प्रस्तुत करते क़ब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ को रेडियो में सुनते थे तो लगता था कि ऐसी भारी-भरकम आवाज़ कोई दूसरी नहीं सुनी! ख़ैर बात वर्ष 1976-77 के दिनों की है जब कमाल अमरोही की महत्वकांक्षी फ़िल्म “रज़िया सुल्तान” जो लगभग सात वर्ष बाद 1983 ई. में रिलीज़ हुई। गायक कब्बन मिर्ज़ा ने जिन दो मशहूर गीतों को अपनी आवाज़ दी, वो फ़िल्म “रज़िया सुल्तान” में अत्यन्त नाज़ुक मोड़ की कहानी बयां करते हैं। जहाँ एक ग़ुलाम हब्बसी याक़ूब, रज़िया बेगम को जो बादशाह इल्तुमिश की बेटी थी और उनकी मृत्यु के बाद खुद दिल्ली के तख़्त पर सुल्तान की हैसियत से 1236–1239 ई. तक गद्दी पर बैठी। उनसे प्यार कर बैठा था। अतः इन गीतों को जां निसार अख़्तर और निदा फ़ाज़ली से विशेष अनुरोध करके कमाल अमरोही ने फ़िल्म के लिए लिखवाया गया था। जो गीत जां निसार अख़्तर साहब ने लिखा था, “आई जंज़ीर की झंकार, ख़ुदा खैर करे” तो वहीं, क़ब्बन साहब द्वारा गाए दूसरे गीत को “तेरा हिज़्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म मेरी हयात है” को गीतकार निदा फ़ाज़ली साहब ने लिखा था। दोनों बेहद लोकप्रिय हुए।
जब “रज़िया सुल्तान” शूटिंग फ्लोर पर चली गई, तब लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की लोकप्रिय संगीत जोड़ी को कमाल अमरोही ने साइन किया। लेकिन, उन्हें फिल्म के लिए इस जोड़ी द्वारा रचित एक तेज-तर्रार धुन पसंद नहीं थी और उन्होंने कहा कि इसके बजाय एक नई धुन की रचना करें। जब कमाल उनकी नई धुन को सुनने के लिए दोनों के घर गए, तो उन्हें इंतजार करने के लिए कहा गया क्योंकि संगीत निर्देशक एक बैठक में थे। यह सब कमाल साहब को अपमानजनक लगा कि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा इंतजार करने के लिए कहा गया, जिनको उन्होंने काम दिया है। अतः कमाल अमरोही ने ख़ैय्याम साहब को संगीत पक्ष का ज़िम्मा सौंपा।
कमाल साहब ने जब ख़ैय्याम जी को बताया कि वो ऐतिहासिक फ़िल्म “रज़िया सुल्तान” को बनाने का ख़्वाब देख रहे हैं तो संगीत की पेशकश पर ख़ैय्याम साहिब ने तुरन्त हामी भर दी। फिर शुरू हुआ इसके अनमोल गीतों पर काम। संयोग देखिये “रज़िया सुल्तान” के रिलीज़ से दो वर्ष पूर्व ‘उमराव जान (1981 ई.) फ़िल्म के गाने तहलका मचाये हुए थे। जिनका जादू आज भी बरक़रार है। अस्सी के उस शुरुआती दौर में जब पश्चिम का कान फाडू गीत-संगीत सुनने वालों का सिरदर्द बढ़ा रहा था तब उमराव जान (1981 ई.) के सभी गीत सबके दिलों-दिमाग़ में एक जादुई असर कर रहे थे। शा’इर निदा फ़ाज़ली, जानिसार अख़्तर (जो तब तक स्वर्गीय हो चुके थे। उनके 2 गीत भी “रज़िया सुल्तान” में थे।) उन दिनों ख़ैय्याम साहब हरदिल अज़ीज़ संगीतकार के रूप में एक बार फिर सबके रोल मॉडल बन गए थे।
“रज़िया सुल्तान” में गुलाम याक़ूब हब्सी के लिए किसी पाठदार, दमदार, भारी-भरकम आवाज की तलाश थी। इस फिल्म में धर्मेंद्र ने एक हब्शी “याक़ूब” की भूमिका निभाई थी. जिसके लिए कमाल अमरोही को एक भारी-भरकम और कड़क आवाज़ की ज़रूरत थी। 50 से अधिक गायकों का टेस्ट लिया जा चुका था, लेकिन मामला कुछ जम नहीं रहा था। उन्हें किसी की आवाज पसंद नहीं आई। ऐसे में एक दिन कमाल अमरोही साहब को एस. अली रज़ा ने क़ब्बन मिर्ज़ा से ये गाने गवाने की सलाह दी। लखनऊ के होने की वजह से एस. अली रज़ा, क़ब्बन मिर्जा को बख़ूबी जानते थे। उन्हें कहा कि वो विविध भारती की एक चर्चित आवाज़ भी हैं। कई बार छाया गीत पर आ चुके हैं। अतः ख़ैय्याम साहब ने क़ब्बन मिर्ज़ा को बुलावा भेजा तो उनके होश फ़ाक़्ता हो गए क्योंकि उन्होंने तो अभी तक कुछ छोटी-मोटी महफ़िलों में ही गीत गाये, गुनगुनाये थे। उन दिनों क़ब्बन मिर्ज़ा मोहर्रम के समय गाए जाने वाले मर्सिया (मातमी, दुःख-दर्द भरे गीत) और नोहे गाया करते थे। ख़ैर फ़रमान पहुंचा तो वह ख़ैय्याम साहब के रूबरू पेश हुए। संगीतकार ख़ैय्याम साहब ने कहा, “जो तुम बखूबी जानते और गाते हो, उनको ही गाओ।” तब क़ब्बन साहब थोड़ा डरते-झिझकते हुए बोले, “मोहर्रम का मर्सिया और नोहे अच्छे से गा सकता हूँ।” तो आवाज़ की परख के लिए उन्हें मर्सिया और नोहे गाने के लिए कहा। और जैसे ही क़ब्बन साहब ने गाया, कमाल अमरोही साहब भी मन्त्रमुग्ध हो गए। ज्यों ही परख पूरी हुई ख़ैय्याम साहब तपाक से बोल उठे, “वाह! वाह!! क्या बात है? यही-यही सौ फ़ीसदी वो आवाज़ है कमाल साहब, जो ग़ुलाम याक़ूब के क़िरदार को परदे पर ज़िंदगी बख़्शेगी!”
अतः रिहर्सल के कई दौर चले और बहुत सधे हुए ढंग से ख़ैय्याम साहब ने क़ब्बन को गवाना शुरू किया, “आई जंजीर की झंकार, खुदा ख़ैर करे….” और इसके बाद, “तेरा हिज्र मेरा नसीब है…..” दोनों गीतों की धुन बहुत ही मुश्किल थी। लेकिन जहाँ चाह होती है वहाँ राह होती है, गायक क़ब्बन मिर्ज़ा ने उस धुन को साधने में दिन-रात एक कर दिए। अतः चौथे दिन मिर्ज़ा को पहले गीत की रिकार्डिंग करने में सफलता हाथ लगी। “रज़िया सुल्तान” उस वक़्त की सबसे रोमांटिक जोड़ी धमेंद्र और हेमामालिनी की फिल्म थी।
क़ब्बन मिर्ज़ा की आवाज को “रज़िया सुलतान” के दरबार में हब्शी सरदार याकूब के लिए इस्तेमाल करना था। अतः एक भारी और असर छोड़ती रूहानी आवाज़ जो क़ब्बन मिर्ज़ा की थी, चल निकली। अलबत्ता रिलीज़ के उपरान्त फिल्म “रज़िया सुल्तान” तो पिट गई लेकिन, खाड़ी के देशों में फ़िल्म ने अच्छा व्यवसाय किया। अब क़ब्बन मिर्ज़ा के गीत सब जगह गूंजने लगे। उनके गीतों को लोगों ने रिकार्ड में बार-बार सुना और अतृप्त ही रहे। फिल्मों में गाने से पहले क़ब्बन मिर्ज़ा का परिचय एक रेडियो एनाउंसर के रूप में था। कई लोगों ने उनके एंकर रूप को भी एन्जॉय किया और कहा—
यूँ तो हैं दुनिया में एंकर कई अच्छे कहते हैं
कि क़ब्बन मिर्ज़ा का है अंदाज़े-बयाँ कुछ ओर।
क़ब्बन मिर्ज़ा का विविध भारती में छायागीत को प्रस्तुत करने के अंदाज कुछ अलग ही था। गीत-संगीत उनके जीवन में शुरू से ही था। विविध भारती में कई शाम एक आवाज़ निरन्तर गूंजती थी, “छाया गीत सुनने वालों को क़ब्बन मिर्ज़ा का ‘आदाब’।” और रेडियो श्रोता इस आवाज के भी दीवाने थे। लेकिन रज़िया सुल्तान फिल्म के गीत गाने के बाद, सबको लगता था कि ख़ैय्याम साहब ने जिस शख्स से इतने सुंदर दो गीत गवाए हैं, वो आगे चलके भी बहुत से फ़िल्मी गीत गाएगा। तभी उन्हें एक बुरी ख़बर मिली—उन्हें गले का कैंसर हो गया था। जिसके बाद क़ब्बन मिर्ज़ा ज़ियादा दिनों तक जी नहीं सके। आज संगीतकार ख़ैय्याम, गायक क़ब्बन मिर्ज़ा और गीतकार निदा फ़ाज़ली व जानिसार अख़्तर चारों इस दुनिया से चले गए हैं। मगर हमारे पास यादों में इन मधुर गीतों का खज़ाना छोड़ गए हैं।
“रज़िया सुल्तान” के अलावा कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ में एक रेयर कव्वाली रिकॉर्ड है। जिसके बोल हैं, “आज उनके पायेनाज़ पे” (क़व्वाली); फ़िल्म: कप्तान आज़ाद (1964) गायक: कब्बन मिर्ज़ा, पीटर नवाब व मोहसिन नवाब। संगीत: पीटर नवाब व गीत: मोहसिन नवाब का ही था।
(आलेख सन्दर्भ: फ़िल्मी पत्र-पत्रिकाएँ व अख़बारों की कतरनें।)