फ़र्ज़ अदायगी
वो कल भी ड्योढ़ी पर इंतज़ार करती थी !
आज भी आस लगाए इंतज़ार करती है !!
जब वो नन्ही कोमल कलि थी
बड़े नाजो से आँगन पली थी
चंचलता से वो मन हरती थी
बाहे फैलाकर ग्लानि हरती थी
नयन टिकाये संध्या बेला में
चन्द टॉफिया की चाह लिये
जीवन की अनुभूतियों से परे
ह्रदय में प्रेम का सागर लिये
पिता के आने की प्रतीक्षा करती थी
बेटी स्वरूप वो फर्ज अदा करती थी
वो कल भी ड्योढ़ी पर इंतज़ार करती थी !
आज भी आस लगाए इंतज़ार करती है !!
रूप बदला संग स्वररूप बदला
वक़्त अनुरूप सब कुछ बदला
अपने जनक का परित्याग किया
पर गृहस्थ सहर्ष स्वीकार किया
बचपन के करतब सब भूल गई
कलि से बन अब वो फूल गई
प्रेम भरी एक मुस्कान पाने को
जीवन में सदा साथ निभाने को
पति के आने की प्रतीक्षा करती थी !
पत्नी स्वरुप वो फर्ज अदा करती थी !!
वो कल भी ड्योढ़ी पर इंतज़ार करती थी !
आज भी आस लगाए इंतज़ार करती है !!
जीवन के दो पड़ाव पार हुए
हाथ पैर से अब लाचार हुए
घर गृहस्थी अब हाथ नहीं
पति का रहा अब साथ नहीं
ह्रदय में बहुत लालसा दबी
वेदना ही बस तन मन बसी
प्रेम में आज भी कमी नहीं
मातृत्व की हिलोर थमी नहीं
पुत्र के आने की प्रतीक्षा करती है
माता स्वरुप वो फर्ज अदा करती है !!
!
सत्यता के पथ पर चल कई रूप घरती है
प्रत्येक स्वररूप में आज भी दम भरती है
वो कल भी ड्योढ़ी पर इंतज़ार करती थी !
आज भी आस लगाए इंतज़ार करती है !!
!
!
!
डी. के. निवातियाँ ____________@@@