ज़ख्म
फ़ितरत इंसान की, भर जाते है,
ज़ख्म तन के, समय के साथ।
नहीं भरते है, हरे ही रह जाते है,
ज़ख्म मन के, समय के साथ ।।
करवट बदलते,निद्रा आ जाती है,
सुकूँ भरे,जीवन सपनो के साथ।
नहीं आती है, फिर नहीं आती है,
डूबी यादों के, जग जाने के साथ।।
नहीं भरते है, हरे ही रह जाते है—-
रचनाकार कवि:- (डॉ शिव लहरी)