ग़ज़ल
हर सच की ये सच्चाई है
आगे कुआं तो पीछे खाई है
कैसे चीरा दिल पहाड़ का
राह उसने खूब बनाई है
अब नहीं हूँ मैं तनहा यारों
मेरे साथ ये तन्हाई है
भीड़ जमा करना है मकसद
ऐसी भी क्या रहनुमाई है
डर गया वो अपने साये से
जब सहरा में रात बिताई है
समंदर उसे न लगा मुनासिब
परिंदा वो इक सहराई है
बिखरे हुए ख्वाब हैं ज़िंदा
शामे – ग़म तेरी दुहाई है
जल रहा है बदन वादी का
पडोसी ने आग लगाईं है
मैं चुप नहीं बैठूंगा हरगिज़
दहशत में क़ैद खुदाई है
पत्थर से तो खून बहेगा
गुफ्तगू बस करिश्माई है
नफरत से न बुझेगी ज्वाला
मुहब्बत ही एक दवाई है