ग़ज़ल
सुहानी शाम का मंज़र मगर तुम नहीं आये
मेरा साया था हमसफ़र मगर तुम नहीं आये
कहीं गा रहा था कोई नग़मे जुदाई के
दिल में उठ रही थी लहर मगर तुम नहीं आये
करना था चांदनी को बस दीदार हमारा
चुपके से आ गयी सहर मगर तुम नहीं आये
जज़्बात की नुमाइश मुझे हरगिज़ नहीं गवारा
तुम्हीं तो मेरे मोतबर मगर तुम नहीं आये
खो गयीं ख़लाओं में सब शाम की रानाइयाँ
बेताब थे कितने मंज़र मगर तुम नहीं आये
हर शबनम का दिया साथ अश्कों ने सहर तक
हमनवा मेरे हमसफ़र मगर तुम नहीं आये
ख्वाहिशों के फूल खिले जब दिल के सहरा में
खत में किया तुमको खबर मगर तुम नहीं आये