ग़ज़ल
जिस तरह मसला बने है अब खुदा भी, राम भी
दूर का मुददा नहीं इस मुल्क में कोहराम भी
मर रहे मुल्के-हिफाज़त में जो, वो गुमनाम है
बेचते जो देश उनका हो रहा है नाम भी
ये ख़ुशी है , हम ज़मीरों का न सौदा कर सके
अब विदा दुनिया से चाहे, हो चले नाकाम भी
ये जुबाँ, कुछ लफ्ज़ औ लहज़े -अदा बस आपकी
है बना देती महज सददाम भी, खैय्याम भी
भीड़ मयखाने में है गर तो गिलसें तोड़ दो
बात साकी तक तो पहुचें, हसरतों के ज़ाम भी
गर बनाना जानते है , तो मिटा सकते भी हैं
ऐ निजामों , हो न जाना, तुम कहीं नीलाम भी
गिर नज़र में खुद की, तेरी , आँख में ऊँचा उठूँ
है हरामों में हमें फिर , जो लूँ तेरा नाम भी
सेक्स टी वी और अख़बारों में है छाया हुआ
संत अब देखो लगे होने हैं आशाराम भी
——-रविन्द्र श्रीवास्तव——-