ग़ज़ल
जाने किस ख़ता पर वो मुझसे रूठ जाते हैं
रह के मेरे ही दिल में मेरा दिल जलाते हैं
उनके ही ख़यालों में शब ग़ुज़रती है मेरी
और एक वो हैं जो मुझको आज़माते हैं
उस घड़ी ये दिल मेरा होने लगता बेक़ाबू
होंठो पर लिपिस्टिक जब वो लगाके आते हैं
बिजलियाँ सी गिरती हैं दिल पे मेरे उस दम भी
जब वो काली ज़ुल्फ़ों में चाँद को छुपाते हैं
चलते हैं वो बल खा कर गोया हिरनी चलती हो
और अदाएँ दिखला कर धड़कने बढ़ाते हैं
मैं भी रूठ जाऊँ तो भर के आँखों में आँसू
फिर वो बाँहों में भर कर बारहा मनाते हैं
मैक़शी न भाती है जाम का न तालिब हूँ
आँखों से ही पैमाना भर के वो पिलाते हैं
जब सताती है “प्रीतम” ग़म की धूप मुझको तो
गेसुओं के साये में प्यार से बुलाते हैं
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उoप्रo)