*** ख़्याल-ए-उम्र ****
अब कुछ तो रखो ख्याल-ए-उम्र
शाम-ए-जिंदगी ढलती जा रही है ।।१
दिल ना जलाओ इन ज़लज़लों से
जिंदगी यूं ही सिमटती जा रही है ।।२
मत रख हाथ अंगार पर अब
जिंदगी खाक बनती जा रही है ।३
ख्वाब दिन में जो देखता है
रात आंखे मलती जा रही है।।४
कैसे समेटूं जिंदगी के वो अनमोल पल
हवाऐं जिनको खुद छलती जा रही है ।।५
कब परवाह की है हमने अपनी
जो जिंदगी यूं सिमटती जा रही है ।।६
कभी हमने कहा था तुमसे ऐ दोस्त
प्यार में यूं दुश्मनी बढ़ती जा रही है ।।७
हालात-ए-जिंदगी छुटकारा पाएं कैसे
जिंदगी में मुश्किलात बढ़ती जा रही है।।८
कभी देख हाल हालात-ए-मेहनतकश
मजबूरियां उसकी बढ़ती जा रही है ।।९
कल बताऊंगा ऐ किस्मत मजबूरियां अपनी
जिंदगी अब धीरे-धीरे ठहरती जा रही है।।१०
मत कर अफ़सोस जिंदगी का अब
जिंदगी अब ज़हर बनती जा रही है ।।११
मद पीकर मत मदहोश हो आशिक
जिंदगी जिंदगी को निगलती जा रही है।।१२
कैसे समेटूं जिंदगी के वो अनमोल पल
हवाऐं जिनको खुद छलती जा रही है ।।१३
ना दोष दो नजरों को मेरी नाज़नीं
जुल्फ जो तेरी बिखरती जा रही है ।।१४
वक्त -ए- हालात बहुत नाजुक है
दुल्हन घूंघट में सिमटती जा रही है ।।१५
भूल से फिर भूल ना हो जाये मुझसे
मुझको गलतियां बदलती जा रही है।।१६
नमन करता हूं आज फिर काव्योदय को
लिखते -लिखते अहर्ता बढ़ती जा रही है ।।१७
कयामत का इंतजार ना कर ऐ ‘मधुप’
जिंदगी मौत बन टहलती जा रही है ।।१८
?मधुप बैरागी