ख़ुदा मिलेगा कहाँ ढूंढूं किन ठिकानों में
1122 1212 122 22
ख़ुदा मिलेगा कहाँ ढूंढूं किन ठिकानो में
या वो है महलों में या है यतीमखानो में
वो गीत ग़ज़लों में है या भजन की संध्या में
वो रामधुन में है या मुल्ला की अजानों में
कि ज़र्रे ज़र्रे में उसका बजूद कायम है
तो क्यों उलझते रहें मज़हबी बयानों में
मुझे हुनर जो दिया ऐसी भी नज़र करना
न हो ग़ुरूर मुझे क्यों रहूँ गुमानों में
दिये हैं रंग जहाँ को ये मेरे मालिक ने
उन्हें भी बाँट दिया मज़हबी निशानों में
कि इस जहान का मालिक तो एक है “योगी”
वो तो है एक अलग नाम बस जुबानों में