ख़ार मिले हैं जिन राहों पर पत्थर-पत्थर बिखरे हैं
ख़ार मिले हैं जिन राहों पर पत्थर-पत्थर बिखरे हैं
गिरकर तो संभले-संभले थे ठोकर खाकर बिखरे हैं
माज़ी की यादों को लेकर आँसू अपने बह निकले
जैसे आज घटे हों संग में ऐसे मन्ज़र बिखरे हैं
बातें जग की बातें सब की ज़ख़्म सभी ने दे डाले
हाले-दिल लफ़्ज़ों में गुंथकर फिर काग़ज़ पर बिखरे हैं
ऐसे भी कुछ लोग जहाँ में पैदा होते हैं अक्सर
बाहर तो जोड़ा है सबको ख़ुद ही अन्दर बिखरे हैं
दौलत शुहरत प्यार वफ़ा के होते हैं चर्चे अक्सर
जो अना में गाफ़िल रहते लोग वो अक्सर बिखरे हैं
यहां भलाई की सोची है ग़र उल्टा उनके साथ हुआ
सहरा होकर तपते हैं वो शीशा होकर बिखरे हैं
मुस्काता ‘आनन्द’ भी यारों बारिश जब-जब होती है
बादल के क़तरे-क़तरे फिर गुल-पत्तों पर बिखरे हैं
– डॉ आनन्द किशोर