होली में चली चला गांवें
जब माह फागुनवा लागे
मनवां मोर घर पर भागे
जब बहेले फगुन बयरिया
मनवा चेतक अस लागे
संवरिया होली में चली चला गांवे
कि होलिया गाँव के ही मन भावे
चित चोर हो जाला मौसम
जब सूरज होला मद्धम
सूरज लालिमा बिखेरे
सांझ हो जाला अनुपम
कि तनिको मन न लगे एही ठावें
संवरिया होली में चली चला गांवे
जब बहे पवन पुरवइया
फिर धूप भी लागे छईयां
भीनी खुशबू फसलन के
मनवा बहकावे सईंयां
कोयलिया मधुर ही तान लगावे
संवरिया होली में चली चला गांवे
-सिद्धार्थ गोरखपुरी