अखंड भारतवर्ष
पूछ रहा आज हिमालय का हर हिमखंड।
क्यौं भारतवर्ष हो रहा प्रतिदिन खंड खंड?
मै प्रहरी अभेद्य शर्मसार सागर भी लज्जित
चारो ओर सुरक्षित सीमाएं कहती दो दंड।।
उन नपुंसक शासकों को जिन्होंने चंद्रगुप्त
साम्राज्य औ सनातन संस्कृति की खंडखंड।।
ऋषियों की तपोभूमि हो गई क्यूँ बैभव विला?
रोती माँ भारती जिसका जिस्म हुआ विखंड।।
नही सुनता है कौई शासक उसका आर्तनाद
होता जा रहा गौरव उसका केवल शिलाखंड।।
कल कल बहती नदियाँ कर रहीं यही निनाद,
सप्त सिंधु धरती का लौटा दो बैभव अखंड।।