हे आदमी, क्यों समझदार होकर भी, नासमझी कर रहे हो?
हे आदमी, क्यों समझदार होकर भी, नासमझी कर रहे हो?
जिसका खाते हो,जिस पर रहते हो, उसे ही प्रदूषित कर रहे हो
धरती की माटी, जिससे तुम बने हो,उसी का खा कर बड़े हुए हो
ये हवा, ये पानी, जिससे चलती है जिंदगानी
ये आकाश, उर्जा अक्षय अग्नि, कण कण में समानी
क्यों संतुलन खो रहे हो?या फिर धीरे धीरे धरती पर जीवन खो रहे हो?
सुरेश कुमार चतुर्वेदी