**** हूं रूख मरुधरा रो ****
हूं रूख मरुधरा रो
केर नाम है म्हारो
विषम सूं विषम टेम
में भी मैं ऊभो रहूं
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अकास म्हारी ओर
देखे है टुकुर-टुकुर
अर सोचे मन में
ओ बिरखा बिना
तपते तावड़ो में
बिना पत्ता रो रूख
सियाळे रो सी कियां
झेले है कांटा साथे
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माथे छाँव नी इण रे
ओ जीवण कियां जीवे
ऊभो आभे में ताकतो
जमीं में पग रोप खड़ो
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अंगद री याद दिलावतो
लोगां उखाड़ने में कसर
नी छोड़ी आप री ऒर सूं
पण जबर जज़्बा न देख
हार मान ली सारां आपणी
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हूं जमीं सूं जुड़योड़ो और
म्हारे पग एक नी अनेक है
बाढ़ र किताक बाढ़ सो थे
हूं फेर भी खड़ो हूं खेत में
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थाने चिड़ावतो रह सूं अर
म्हारो कीं नी बिगाड़ सको
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ई जमाने में म्हारा फळ इतरा
मेंगा हो गया अर स्वार्थ थारों
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मैं सदाबहार रूख मरुधरा रो
म्हारा फळ खाणा चाहो तो
कांटा तो सहणा ही पड़ सी
फळ खाणा है तो प्रेम सूं
नी तो म्हारा सूळ थांरों
काळजो बींद दे सी अर थे
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इण पीड़ न लेन सगळी उमर
रोंवता रहसो म्हने याद कर-कर
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ना करो बेर म्हा सूं
मैं केर हूं केर खेर
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हूं रूख मरुधरा रो
केर नाम है म्हारो
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?मधुप बैरागी