हिज़्र में जीना सज़ा है
हिज़्र में जीना सज़ा है
चाँदनी भी बेवफ़ा है
साथ उनके रौनकें थीं
अब हँसी भी बेमज़ा है
अब नहीं चढ़ता नशा भी
हिज़्र में पीना सज़ा है
अब बग़ीचे में भी दिलबर
वो नहीं बाद-ए-सबा है
ज़िन्दगी है, तीरगी अब
रौशनी तो खुद क़ज़ा है
दिल के कोरे काग़ज़ों पर
आँसुओं ने ग़म लिखा है
मौत की भी हैसियत क्या
ज़िन्दगी है तो क़ज़ा है