हिसाब-किताब / मुसाफ़िर बैठा
(1)
जमाना इक्कीसवीं सदी तक का
आधुनिक हो चला
गलीज परम्पराओं से हिसाब बिठाकर
कबतक चलते रहोगे हिसाबियो!
आओ!
अब तो हो जाए
हिसाब किताब बराबर!
(2)
हिसाब
टटका टटका हो सकता है
और बासी भी
और साहित्य टटका रचा होकर भी
हो सकता है
बासी ही
हर बासी का
हम दलित लेखक
टटका हिसाब करने में
यकीन रखते हैं।
(3)
आपके पास आया कवि
हिसाब के साथ प्रस्तुत हो सकता है
और नहीं भी
जबकि
श्रोता का हिसाबी होना
लाजिमी है।
(4)
कवि तुम हो कि मैं
तुम्हें अपनी रचना में
दलित को बरतने नहीं आता
हमें तुम्हारे हिसाब की
कविता बनाने नहीं आता।
(5)
हिसाब बिना प्रश्न लिए भी होते हैं
और बिना उत्तर करने के भी।
(6)
जीतन मांझी से आभाधारित
दो हालिया हिसाब
उद्भूत हुए
छुआछूत की ‘रस्म’ अब भी
दलितों पर तारी है
और विदेशी मूल का भूत सताता
द्विज ब्राह्मणवादियों पर पक्का भारी है।
(7)
कहते हैं
किसी रचना का मूल्य आंकते
गणितीय हिसाबदारी
नहीं चल सकती
मगर
दलित रचनांकन तो
पाई पाई का हिसाब
जोहता है।
(8)
आपके पास
किसी के लिए
जितनी संचित है घृणा
है उतना ही प्रेम भी अगर
हिसाब तो लगाइए
बेहिसाबी में
किसका मोल कैसा है
और है तौल कैसा!
(9)
जहाँ
दो और दो
चार नहीं होता है ।
वहां अक्सर मुनाफे का बेहिसाब
सौदा होता है।
गो कि
बेहिसाब का भी
अपना एक हिसाब होता है!