हिंदी पत्रकारिता दिवस
30 मई 1826 को हिंदी का प्रथम समाचार पत्र ‘उदंत मार्त्तण्ड’ आचार्य जुगलकिशोर सुकुल (शुक्ल) के संपादकत्व में कलकत्ता (अब कोलकाता) से प्रकाशित हुई थी। तारीख 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। जुगलकिशोर जी काम के सिलसिले में कोलकाता गए थे और खड़ी बोली एवं ब्रजभाषा लिए हिंदी के प्रूफरीडर थे, मूलत: वे कानपुर, संयुक्त प्रान्त (अब उन्नाव जिले, उत्तर प्रदेश) के रहवासी थे। कोलकाता से ही ‘बिहार बन्धु’ का प्रकाशन 1873 में हुआ, जिनके संपादक व प्रकाशक स्व. बालकृष्ण भट्ट और सब. केशवराम भट्ट थे, जो आपस में भाई थे तथा महाराष्ट्र के ब्राह्मण थे, किन्तु मूलत: बिहार के नालंदा (बिहारशरीफ) के रहवासी थे। भागलपुर से 1880 में हिंदी दैनिक ‘पीयूष प्रवाह’ प्रकाशित हुई थी, जिनके कई संपादक/प्रकाशक हुए।
हिंदी के ये लिङ्ग, ये वचन, ये संज्ञा, ये सर्वनाम, ये क्रिया-कर्म, संधि-कारक (अलंकार और समास की बात छोड़िये) ने तो हिंदी के विकास को और चौपट किया है, इनमें संस्कृतनिष्ठ शब्द उसी भाँति से पैठित है, जिस भाँति से जो-जो आक्रमणकारी भारत आये, वे अपनी भाषा को भी कुछ-कुछ यहाँ देते गए, तो यहाँ की भाषा को कुछ-कुछ ले भी गए ।
‘आधुनिक हिंदी व्याकरण और रचना’ (23 वाँ संस्करण) में लिखा है कि हिंदी,हिन्दू और हिन्दुस्तान जैसे शब्दों को पारसियों ने लाया है, ये तीनों शब्द ‘जेंदावस्ता’ ग्रन्थ में संकलित हैं । अमीर ख़ुसरो और मालिक मुहम्मद जायसी ने इसे ‘हिन्दवी’ कहा ।
इस हिन्दवी के पहले की हिंदी को कोई आरंभिक हिंदी कहा, तो प्रो0 नामवर सिंह ने ‘अपभ्रंश’ कहा, जबकि कई ने कहा – ऐसी कोई हिंदी नहीं है, जब अपभ्रंश का अर्थ बिगड़ा हुआ रूप होता है, तो उस लिहाज़ से संस्कृत का बिगड़ा रूप हिंदी हो, किन्तु जिस भाँति के संस्कृत के वाक्य-विन्यास है, उससे नहीं लगता कि वर्तमान हिंदी ‘संस्कृत’ से निकला हो ।
हाँ, अच्छा लिखा जाने के लिए संस्कृत के शब्दों को लिया गया । इसके साथ ही मुझे यह भी कहना है, पारसियों की भाषा-विन्यास से यह कतई नहीं लगता कि हिंदी, हिन्दू, हिन्दुस्तान जैसे शब्द-त्रयी पारसियों की देन हो सकती है ! क्योंकि सिंधु-सभ्यतावासियों की अबूझ लिपि, महात्मा बुद्ध काल के पालि भाषा या ब्राह्मणत्व संस्कृत से विलग हो संस्कृत की गीदड़ी लोकभाषा लिए समाज से बहिष्कृत पार्ट दलित और बैकवर्ड की भाषा के रूप में ‘हिंदी’ निःसृत हुई , जैसा मेरा मानना है।
क्या यह आश्चर्य नहीं है, दलित-बैकवर्ड की भाषा ‘हिंदी’ पर भी भारत के कथित सवर्ण व ‘ब्राह्मण’ की नज़र गड़ गया– पंडित कामता प्रसाद गुरु ने ‘हिंदी व्याकरण’ को संभाला, तो पंडित रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ को सरकाने का ठीका ले लिया, आज इसी ठीकेदारों की प्रस्तुत तथाकथित ठीकेदारी को मॉडर्न आलोचक, समीक्षक अपनाने का एवेरेस्टी बीड़ा उठा रखे हैं । हाँ, उर्दू के लिए कुंजड़िन की बोली- ‘भिवरु ले लई’ से आगे बढ़कर मोमिन, राईन आदि ने शेखु, सैय्यद आदि को पछाड़ते हिंदी के समानांतर वो आबद्ध हुई। हाँ, दोनों में अंतर सिर्फ लिपि का रहा।