*हास्य-व्यंग्य*
श्रद्धाँजलि की साहित्यिक – चोरी (हास्य व्यंग्य)
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मेरी लिखी हुई श्रद्धाँजलि व्हाट्सएप समूह में आधे घंटे बाद ही एक और सज्जन ने अपने नाम से छाप दी। मुझे गुस्सा नहीं आया । बहुत दुख हुआ । हिंदी साहित्य की आज यह दुर्दशा हो गई ? साहित्यिक चोरी श्रद्धाँजलियों को चुराने तक पर उतर आई है !
चोरी का स्तर देखिए कहां से कहां तक पहुंच गया ! एक जमाना था जब शातिर चोर साहित्यिक चोरी कर – कर के अर्थात कॉपी पेस्ट करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त कर लेते थे । तथा अपने शोध प्रबंध को तहखाने में इस प्रकार छुपा देते थे कि उसे किसी की हवा भी न लगने पाए । संसार केवल उन्हें डॉक्टर साहब के नाम से जानता था । उन्होंने कोई शोध प्रबंध किया है ,इस बात का तो केवल तीन लोगों को ही पता होता था। एक वह स्वयं ,दूसरे उनके निर्देशक और तीसरा वह विश्वविद्यालय जिसने उन्हें पीएचडी की उपाधि दी थी । वह गौरवशाली युग साहित्यिक – चोरी का स्वर्णिम समय था। प्रतिभाशाली लोग साहित्यिक – चोरी के कार्य में संलग्न होते थे और अपनी चतुराई का डंका सारी दुनिया में मनवा लेते थे। मजाल है कि कोई एक वाक्य भी कहीं से पकड़ ले । लेकिन आज श्रद्धांजलि देने में भी चुराई हुई सामग्री जब प्रयोग में लाई जा रही है ,तब मेरा दुखी होना स्वाभाविक था ।
मैंने श्रद्धांजलि – चोर को बुलाया । उसे प्यार से अपने पास बिठाया और कहा :- “देखो भाई अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है ! तुम्हें साहित्य में बहुत आगे बढ़ना है । इतने टुच्चेपन से चोरी करोगे तो कहां टिक पाओगे ? अकल से काम लिया करो। रचनाओं की चोरी होती है ,कविताओं की चोरी होती है ,कहानियों की चोरी होती है। भला श्रद्धांजलि भी कोई किसी की चुराता है। तुमने तो कफन – चोरों तक को मात कर दिया ।”
श्रद्धांजलि – चोर उर्फ साहित्यिक – चोर अब रुआंसा था । बोला “यह तो आप सही कह रहे हैं कि मुझसे साहित्यिक चोरी करना नहीं आती । लेकिन क्या करूं ? समूह में सब लोग श्रद्धांजलियाँ दे रहे थे । मैंने सोचा मुझे भी देना चाहिए वरना नाक कट जाएगी । श्रद्धांजलि लिखना आती नहीं थी। आपकी श्रद्धांजलि अच्छी लगी । उसी को चुराकर समूह में फिर से डाल दिया।”
मैंने कहा “अक्ल से पैदल ! कम से कम इस बात का तो ध्यान रखा करो कि जहां से जो चीज चुराओ ,वहां उसका प्रदर्शन न करो। वहां तो वस्तु का मालिक भी घूमता है। और भी चार लोग पहचान जाएंगे कि तुमने चीज चुराई है। नाक तो तुम्हारी कटेगी ही। जब तुम ने चुराया है तो बच नहीं सकते ।”
वह बोला ” फिर मुझे क्या करना चाहिए ? मैं श्रद्धांजलियाँ लिखना चाहता हूं, कोई तरकीब बता दीजिए। एक परमानेंट श्रद्धांजलि आप मुझे लिख कर दे देंगे तो मेरा काम चल जाएगा । संसार में लोग मरते रहते हैं । यह मृत्यु लोक है । अगर मैंने सब को श्रद्धांजलियाँ देना शुरू कर दीं, तो धीरे-धीरे एक श्रद्धांजलि-लेखक के तौर पर मैं प्रतिष्ठित हो जाऊंगा ।”
मैंने कहा “मूर्ख ! साहित्य में श्रद्धांजलि- लेखन नाम की कोई विधा नहीं है । व्यंग्य लेखन है ,हास्य लेखन है ,कहानी लेखन है मगर श्रद्धांजलि – लेखन नाम की कोई चीज नहीं है ।..और फिर यह परमानेंट श्रद्धांजलि कैसे हो सकती है ? कोई हंसमुख व्यक्ति है ,कोई लड़ाका है । कोई ईर्ष्यालु है, कोई संतोषी होता है । संसार में सब लोग अलग-अलग होते हैं । सब को श्रद्धांजलियाँ अलग-अलग प्रकार से दी जाती हैं ।”
वह कहने लगा “मरने के बाद तो सभी को अच्छा कहा जाता है । आप सकारात्मक बातों को लेकर एक शानदार श्रद्धांजलि मुझे लिखकर दे दीजिए। मैं उसे सब जगह लिखकर दे दिया करूंगा । मेरा नाम हो जाएगा ।”
मैंने कहा ” अगर नाम पैदा करना चाहते हो तो खुद से लिखना सीखो । एक श्रद्धांजलि खुद लिखो।”
वह बोला “लिखना आती होती ,तो मैं आपकी श्रद्धांजलि क्यों चुराता ?”
मैंने कहा “बात तो सही कह रहे हो। लेकिन बिना लिखे काम भी नहीं चल सकता।”
सुनकर वह परेशान होने लगा । मैंने उससे कहा “कोशिश करना।”
उसने मुझे विश्वास दिलाया कि अगली बार जब कोई मरेगा ,तब वह मौलिक श्रद्धांजलि देगा । हालांकि इस बात को कई दिन हो गए हैं । अभी तक न कोई मरा है , न उसने मौलिक श्रद्धांजलि दी है । देखिए आगे- आगे क्या होता है ! .
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451