#हस्सिये हस्स कबूलिये
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● यादों के झरोखे से ●
संपादक महोदय सालों-साल मुझे उकसाते रहे (मैं जब भी कभी चर्चा के बीच. केवल ‘संपादक’ कहूं तो उसका एक ही अर्थ होगा कि पंजाबी मासिक ‘सत समुंदरों पार’ के संपादक श्री इन्द्रजीत सिंह जी); वे कहते कि “अब आप कुछ लिखते क्यों नहीं? आप लिखते रहा करें। आप कुछ भी लिखिए और मुझे दीजिए मैं अपनी पत्रिका में प्रकाशित करूंगा।”
मैं हमेशा हंसकर टाल देता।
लेकिन, एक दिन संपादक महोदय जीत गए।
दिसम्बर २०१३ में लगभग चालीस साल बाद मैंने फिर से लिखना शुरु किया।
आज के दिन, आप मित्रगण जो मेरी रचनाएं पढ़ते हैं उसका श्रेय केवल एक व्यक्ति को है। और, वो हैं —- मेरे संपादक —- श्री इन्द्रजीत सिंह जी।
आयु में मुझसे बहुत छोटे हैं वे, फिर भी मैं उन्हें ‘जी’ कहकर पुकारता हूं। हां, कभी बहुत प्रेम आ जाए तो ‘तुम’ पर आने में देर नहीं लगती। और, संपादक जी पर प्रेम तो उमड़ता ही रहता है।
मुझसे प्रेम के चलते उन्होंने अपने सम्पादकीय दायित्वों की अनदेखी नहीं की। मेरी एक रचना उन्होंने यह कहकर प्रकाशित करने से मना कर दिया कि यह तो आपकी ज्योतिष विद्या का विज्ञापन है। मैंने उसमें दो पंक्तियां और जोड़ीं तो दोष जाता रहा। मेरी एक और रचना में उन्होंने मुझसे कुछ संशोधन करने को कहा। उस संशोधन के बाद उस कविता में और निखार आ गया।
संपादक महोदय धन्यवाद !
और अब ?
अब आपकी सेवा में प्रस्तुत है यह पंजाबी गीत।
★ #हस्सिये हस्स कबूलिये ★
पल्ले साडे ठीकरियां
इश्के दा भाअ कराया
दिल निमाणा ठोकरया
असां चुक झोली विच पाया
पल्ले साडे ठीकरियां. . . . .
केहड़ी रुत्ते केहड़े वस्तर
केहड़े फुल्ल मखाणे
केहड़ी रुत्ते हासे खिड़दे
सब रुत्तां भरमाया
पल्ले साडे ठीकरियां. . . . .
मेरे घर तों तेरे दर तक
चुप दा इक परछावां
चानण वेले दा हमराही
असां पहले पहर गंवाया
पल्ले साडे ठीकरियां. . . . .
हरियां-भरियां नड्ढियां दी
झोली विच रुशनाई
केहड़े जुग्गीं तप करदियां
कदों है पुन कमाया
पल्ले साडे ठीकरियां. . . . .
सी करिये न अक्ख भरिये
न हौले हो के बहिए
हस्सिए हस्स कबूलिये
जो झोली विच आया
पल्ले साडे ठीकरियां. . . . .
उस कंढे है यार खलोता
इस कंढे असीं हां मोये
विच वगण मजबूरियां
जो-जो लेख लिखाया
पल्ले साडे ठीकरियां . . . . . !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२