हर उम्र है
हर उम्र है इक शम्मअ जो तूफ़ां मेँ रवाँ है
जलती रहे तो रौशनी बुझ जाय धुवाँ है
हर सुबह सलामी का तलबगार है सूरज
हर शाम उसे अपनी हकीकत का गुमाँ हैं
ओरो कि तरफ फेंकते हैँ आज जो पत्थर
क्या लुत्फ़ है खुद उनका ही शीशे का मकाँ हैं
हर शख्श को जो दर्द का अहसास करा दे
इस दौर में वो मेरा ही अंदाजे बयाँ है
सब चाहते हैं ऊम्र भर ज़ीना सकून से
पर कब हुआ हासिल सभी को ऐसा जहाँ है
@
डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव