हमारी संस्कृति
हमारी संस्कृति शश्ववत है,
सनातन है मानवता वाही है।
न जाति की न सम्प्रदाय की,
प्रकृति पोषक सत्य स्वीकार है।
पर वर्तमान में क्यों होता पक्षपात,
पश्चिमी सभ्यता को होते मुहताज।
संस्कृति की अपनी मर्यादा का प्रतिबंध,
पाश्चात्य सभ्यता से सभी स्वच्छंद।
हमने नारी को देवी रूप में पूजा,
पर आधुनिकता ने स्वरूप दिया दूजा।
वेशभूषा तक तो ठीक पर, अब दुश्चरित्रता तक पहुंचाया।
शालीनता ओझिल कर दी,
अर्द्धनग्नता पर पहुंचाया।
मर्यादित व्यवहार आचरण,
थे नर नारी के आभूषण।
पर स्वछन्द निर्लज्जता बढ़ीं,
बनी समाज में फैशन।
आस्तिकता से हुये दूर हम,
नास्तिक भी नहीं हो पाते।
संरक्षक ही मर्यादा भूलें,
हिंसा और लूट मचाते।
सतीत्व नष्ट हो रहा आश्रम में,
फिर भी साधू कहलाते।
उपदेशक ही पथभ्रष्ट हुये,
संस्कृति को दोष लगाते।
यज्ञ में आहुतियां देना जैसा,
काम मीडिया भी करती।
साहित्यकार भी बहा हवा संग,
कलम कामुकता पर ही चलती।
यही नही शासक वर्ग भी,
पिछ्लग्गु से बन जाता।
कुर्सी और सत्ता की खातिर,
फर्ज से पिछे हट जाता।
स्थिति तब और शर्मसार है,
जब कानून सम्प्रदाय के होते।
एक राष्ट्र के नागरिकों को,
समान कानून नहीं होते।
अंधविश्वास घुस गया समाज में,
संस्कृति होती है बदनाम।
रीत रीबाज को दोषी ठहराया,
स्वयं करें ख़ोटें काम।
राजेश कौरव सुमित्र