*** ” हमारी धरोहर : पेड़-पौधे और मैं…! ” ***
*** प्रकृति की अनमोल रचना हो तुम ,
प्रकृति की अतुल्य संरचना हो तुम ।
प्रकृति की अनुपम देन हो तुम ,
प्राकृतिक संपदा में अमूल्य निधि हो तुम ।
पर..! , न जाने तुम ,
मेरे हाथों से , कटते हो कितने बार ;
अनजाने-मौन , बिखर जाते हो ,
न जाने शायद.. अनगिनत कितने बार ।
कभी कुल्हाड़ी की क़हर से ,
कभी चंदन की तस्कर से ;
कभी गांवों के विकास की असर से ,
कभी शहरी-गहरी-फैली-
जनसंख्या की गुजर- बसर की लहर से ।
शायद.., तुम ही हो केवल एक ,
प्रकृति में नश्वर…!
न जाने कितने प्रहारों से.. ,
तुम हो बे – असर…!
फिर , संवर जाते हो ,
हरियाली की अमिट रंग भर…!
अनगिनत शाखाओं के संग ,
ऊँची आसमान की ओर हो अग्रसर…!
कर विषाक्त गैसों ( CO , SO2 ..आदि ) को ग्रहण ,
मुक्त-उन्मुक्त पवन संग..!
हरपल O2 हम पर छोड़ जाते हो ।
और..
मस्तमय-सुरम्य-अमूल्य जीवन को..
मंत्र मुग्ध कर जाते हो ।
*** अनजाने में नहीं जान-समझकर ही ,
मैंने तुझे कितने बार…! ,
” कुछ रक्त-तप्त..,
कुछ नुकीले हथियारों से खरोचा है । ”
” तेरे सु-कोमल काया पर ,
न जाने कितने स्मृतियों को उकेरा है । ”
किया है मैंने कितना गुनाह..! , तुम पर ;
फिर भी तुमने ” बनकर छांव ,
बनकर नाव , दिया है अपना पनाह । ”
” जंगली का नाम बदल , ‘ इंसान.. ‘ कहा । ”
” मेरे अनगिनत अत्याचारों.. को सहा । ”
” फूलों के रंगों में निखर ,
बंधी हुई गुलदस्तों में संवर…। ”
” कुछ कचड़े के ढेर में स्वयं..!
हो गई बिखर…। ”
*** मैंने काटा है तुझे..!,
कितने बार ;
” अपने उपभोग के लिए…
जैसे ‘ ईंधन ‘ । ”
” कभी विकास और कभी दोहन के लिए…
जैसे ‘ खनन – उत्खनन ‘ । ”
” धूप में छांव के लिए.. ,
चरण- पादुका पांव के लिए…। ”
” नव – निर्माण , घर-सदन.. ,
खुशियों के बहाने , होली-दहन..। ”
” रुपये-पैसे जमाने के लिए.. ,
और..
न जाने क्या-क्या के लिए..। ”
लेकिन ..! तुम थे खड़े ….,
जैसे कोई अनजाने ब़े-खबर ।
फिर भी तुमने मुझे …! ;
” न कभी रूलाया है…! ,
ठंडी-शीतल छांव बनकर…
अपनी गोद में सुलाया है । ”
” बनकर अविराम-अविरल पवन..! ,
होले से स्पर्श कर जगाया है । ”
” बनकर फूलों की चमन…! ,
मेरे मन को महकाया है । ”
” बनकर पर्णहरिम…! ,
भरपेट खाना भी मुझे खिलाया है । ”
और…
जीवन के हर रंग को ,
न जाने क्यों इतना सजाया है । ”
और मैं भी…! क्या कुछ कहूँ……! ;
” बनकर बुटीक-जड़ी दवा…! ,
लक्ष्मण जैसे भाईयों को..
मूर्छित होने से बचाया है । ”
” बनकर पर्ण-कुटी ‘ अशोका-वन.! ‘ में
‘ सीता जी..! ‘ को सम्पूर्ण सुरक्षा की
भरोसा भी दिलाया है । ”
और..एक मैं हूं जो…!,
तुझे काट तेरे सहारे ;
आज ” चांद-मंगल ” पर..
आसानी से कदम रख लिया है ।
उस पर..
एक खूबसूरत आशियाना भी बनाने की ,
अब तैयारी कर लिया है ।
और भी क्या…? ;
जिसको समझने की चाह में…!
” सम्पाती जी..! ” ने भी
अपने पंखों को जला लिया है ।
आज…
उसे मैंने ” आदित्य -मिशन ” का नाम देकर ;
” सूरज ” को छुने की मन में ठान लिया है ।
*** देखो…!
मैं और तुम कितने अलग हैं ;
” तुम मुझे संवारते हो… ,
सजाते हो….। ”
” और मैं तुझे उजाड़ता भी हूं…,
उखाड़ता भी हूं । ”
लेकिन…..! ,
शायद नहीं सत्य और हकीकत है…;
” तुझे काट अब मेरा ही दम घुटने लगा है । ”
” तुझे काट अब मेरा ही जीवन घटने लगा है । ”
और..
अब ” अंतकाल की घड़ी भी रुकने वाला है । ”
तुमने अपना…!
फ़र्ज़ बखूबी.., ईमानदारी से निभाया है ।
इशारों ही इशारों में..
कुछ घटना बनकर रुख़ , अपना जताया है ।
” कभी जल-जला पवन बनकर..। ”
” कभी आंधी और तूफान की क़हर बनकर। ”
” कभी गर्मी की तपन बन… ,
कभी सागरिय-सीमा तल लांघ कर । ”
पर …..!
इन संकेतों का मुझ पर ,
हुआ न कोई असर ।
और…
बन गया फिर मैं , वही जंगली जानवर…! ।
अब….
” राम-कृष्ण ” की इस धरती पर ,
किलकारियों की जगह हा-हा कार की ,
अजब-गजब गुंज होने वाली है ;
और…..
मुझे मेरे..! कृत्य-कर्मों के हिसाब… ,
प्रतिक्रिया-फल परिणाम..!
जल्दी ही मिलने वाली है ।
और….
मुझे मेरे..! कृत्य-कर्मों के हिसाब… ,
प्रतिक्रिया-फल परिणाम…!
जल्दी ही मिलने वाली है ।
***************∆∆∆**************
बी पी पटेल
बिलासपुर ( छ . ग. )