*** हमारा दिल ***
हमारा दिल
अब शीशे का नहीं है
जो ठेस लगने से
टूट जाता है
ये तो स्पंज की माफिक है
जो धड़कता। है
तो सिकुड़ता भी है
इसे चोट मारो तो
ये और उछलता है
इस दिल का कुछ
भी नहीं बिगड़ता है
चोट करने वाला
खुद पछताता है कि
मैंने नाहक परेशान
करने की कौशिश की
खुद ही परेशां होकर
भाग खड़ा होता है
इस दिल को कितना
ही परेशां करो ये
फिर सम्भलकर अपनी
यथा। स्थिति पाता है
दिल कोमल है पर
कठोरता को ये
वापिस उखाड़कर
फैंक देता है
ये मेरे दिल का
आधुनिकीकरण है
आज कल के लोगों
को पता तो चले
आज का दिल भी
फौलाद से कम नहीं है ।।
?मधुप बैरागी