” स्वतंत्र कविता “
डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
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यह भूल कर
ना सोचें ,
कविता की सरिता
कलकल ही बहती हैं !
बड़े शांत
मंथर गति से ,
पर्वत की श्रृंखला के
छोर से वह निकलती है !!
समाज के विषयों
को ,ही देख के
कविता भी अपना
रूप बदलती है !
लेखक के
क्रंदन की ,
परिस्थितियां देखकर
गति में
तीव्रता आती है !!
समय अनकूल
होता है ,
राहों में शायद
कोई अड़चन नहीं
मिलता कहीं !
आवध गतिओं से
चलके ,
शांत हो विशाल सिन्धु
केबाँहों में मिलता वहीँ !!
अच्छे दिनों की
बात पर ,
कविता घूँघट में
ही रहकर
कोई गीत सुनाएगी !
जब कोरोना
के कहरों ,से
यह कविता रूठेगी
तब एक सुनामी आएगी !!
कविता अपना
रूप बदल ,
गति में तीव्रता और
शंखनाद करके बतलाएगी !
कविता को दोष
नहीं देना ,
कान्तिकारी झंडे को
दसों दिशा फहराएगी !!
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डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
साउंड हेल्थ क्लिनिक
एस० पी ० कॉलेज रोड
दुमका
झारखण्ड
भारत