स्त्री
:::: स्त्री ::::
एक कोमल सी कलि बन खिलती है वो
सुगंध सी, मिठास सी घुल मिलती है वो
मुझे गुमान है अपने मर्दाने अस्तित्व पर
स्त्री के मजबूत कोख में जो पलती है वो
अहसास उसका शक्ति है हर रोम की
गूँजती है अक्षत जैसे रूह हो ओम की
हर चेतना में बसता है स्त्री का रूप
विद्या, लक्ष्मी, दुर्गा या मातृ स्वरूप
जो स्त्री को मिली कोमल काया
सुंदर मधुर चंचल शीतल छाया
जिसके कारण आनंद उमंग बरसे
सृजना, करुणा, त्याग से मन हर्षेषे
जिसके वक्ष से निरंतर प्यार है रिसता
प्यार के आँगन में जीवन को सींचता
क्यों करे पौरुष से स्त्री की समानता
धरती की तुलना जैसे आसमान का
शक्ति स्वरूप की पहचान सबको हो ज्ञात
सशक्तिकरण स्त्री की है अज्ञानियों सी बात
भोग वस्तु कहते असुर, विलासी
गंगा से ही बनी है शिव की काशी