स्त्री
एक बेटी दुल्हन के रूप में जब सजती है स्त्री
किसी स्वर्ग की अप्सरा सी तब लगती है स्त्री
दो परिवारों के बीच संबंधों की नींव होती है स्त्री
इस घर की बेटी उस घर की बहू बन जाती है स्त्री
महा दान कन्या का दान कन्यादान में आती है स्त्री
सात फेरों के पवित्र बंधन में बंध जाती है स्त्री
एक अनजान पर-पुरुष की अर्धांगिनी हो जाती है स्त्री
बचपन का वो आंगन सूना कर जाती है स्त्री
जहां बचपन बिताया वो पराया सा लगने लगता है
आती है बाद में जाने का ख्याल आने लगता है
अब तो ना जिद बाप से ना भाई से झगड़ती है
छोटी ने मेरे कपड़े पहने इस बात पर नही अड़ती है
शादी के बाद अपने ही घर में क्यूँ परायी हो जाती हैं बेटियां
सुबह आती हैं और शाम से पहले क्यों लौट जाती है बेटियां
बचपन की वो दहलीज़, वो आंगन, वो सखी सहेलियां
जिन गलियों में दौड़ लगाती थी क्यों भूल जाती हैं बेटियां