सोच-सोच में फर्क
कौन कहता है कि लड़कियां उदंड हो रही हैं, अपनी सीमा पार कर रहीं हैं, कभी बड़े शहर में छोटे कस्बों, छोटे गाँव की ओर से आती हुई लड़कियों को ध्यान से देखा है, कुछ पा लेने का और अपने जैसी अनेकों को रास्ता दिखाने का काम जितने आत्मविश्वास के साथ व्यवहारिक रूप से ये लड़कियां करतीं हैं, बड़े-बड़े डिग्रीधारी, मंसूबे रखने वाले लोग नहीं कर पाते।
कभी पतले रंगीन दुपट्टों के साथ, तो कभी जींस और जैकेट के बीच अपने ईज्जत को संम्भालती ये लड़कियां अपने घर को हीं नहीं बल्कि पूरे कस्बे, पूरे प्रदेश को संभालती है, जरूरत है इन्हें सही मौका देने की, इनका साथ देने की।