सृजन
सृजन
मैं सृजन का देवता हूँ ध्वंस मैं कैसे करूं,
है हलाहल कंठ में पर विष वमन कैसे करूँ ।
दासता की बेड़ियों में क्रान्ति का मैं बीज हूँ,
पर दमन के दोषियों को मैं नमन कैसे करूँ ।।
तिमिर घन के बीच जैसे दामिनी का स्वत्व है,
उस तरह संघर्षरत रहना मेरा अस्तित्व है।
सागरों को चीरकर लहरों का चलना अनवरत,
उस तरह निर्द्वन्द्व बहना ही मेरा व्यक्तित्व है ।।
हिमशिखर उत्तुंग फिर भी रश्मियाँ रवि की विरल,
है पिघलता जा रहा सदियों से हिमशिखरों का बल ।
किन्तु, फिर भी है अडिग, आसन्न वैसा ही खड़ा,
हूँ हिमालय सदृश मैं भी विघ्न, बाधा में अटल ।।
सृजन मेरा लक्ष्य है विध्वंस मैं कैसे करूँ,
शत्रुओं के बीच मित्रों का चयन कैसे करूँ ।
मंदराचल की तरह मथता रहा सागर मगर,
शीश पर धारित धरा है मैं शयन कैसे करूँ ।।