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13 May 2023 · 1 min read

सूरज दादा ड्यूटी पर (हास्य कविता)

मेरी भी कुछ दिन ड्यूटी कड़ी है।
सुनहरे भविष्य के लिये अड़ी है ।।
गाली सुन कर फिर भी तप रहा,
जब ही तो आये सावन की झड़ी है।। मेरी भी—
क्या करूँ कड़क दोपहर फिरूँ ।
तीखे लू के थपेड़ों को कैसे हरूं ।।
तुम पेड़ों से माँगों कुछ दिन छाया,
मेरी ड्यूटी उनके लिये ही लड़ी है।। मेरी भी—-
मुझे अच्छा नहीं लगता यूँ सताना।
मेरे ही तो पोते पोती है, यूँ इतराना ।।
सख्त दिल भी कभी करना पड़ता,
सोचो तपने से ही वो कुंदन जड़ी है।। मेरी भी—
सूख रहे निर्झर मुझे मिलता उलाहना।
कैसा दादा है इसे बस आग उगलना।।
तप रहा हूँ मैं, सिर्फ फर्ज निभा रहा हूँ,
तरु जो तुमने काटे उनकी भी तड़ी है।। मेरी भी—
दादा को ही कहते हो कुछ राहत भरो।
जल थल नभ, तुम क्यों आहत करो।।
मुझे तपकर ही तो बादल को है भरना,
बात नहीं तपने की कुछ ड्यूटी पड़ी है।। मेरी भी—
(रचनाकार- डॉ शिव लहरी)

Language: Hindi
355 Views
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